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मेरे कृतित्व के आयाम
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Sunday, 14 October 2012
कर्म और भाग्य
सृष्टि में कर्म प्रधान है या भाग्य, यह जिज्ञासा प्राय: मानव में बनी रहती है, क्योंकि बहुधा शुभ कर्मकर्ता कष्ट सहते, दुखी और पाप कर्मरत जीव सुखी दिखाई पड़ते हैं। मनीषियों ने कर्म प्रधान विस्व रचि राखा और करम गति टारे नाहिं टरी भी लिखा तथा होइहइ सोइ जो रामरचि राखा तथा विधाता के भाग्य लेख की भी बात लिखी है। सच क्या है? वास्तव में यह विरोधाभास दृश्यमान मात्र है और भ्रम भी है। जगत कर्म प्रधान ही है और मानव तन कर्म से ही निर्मित है। कर्म के तीन स्तर है 1. संचित, 2. प्रारब्ध और 3. क्रियमाण। असंख्य जन्मों में किए कर्म संचित के रूप में सदा जीव के साथ संलग्न रहते हैं और देहांतर पर सूक्ष्म शरीर के साथ संस्कार रूप में विराजमान रहते हैं। कर्म सामान्यत: भोगने से ही कटते या क्षय होते हैं। किसी जन्म विशेष में संचित का जो अंश प्राणी भोगता है उसे प्रारब्ध या भाग्य कहते हैं तथा वर्तमान में किया जाने वाले कर्म क्रियमाण कहलाता है जो सामान्यतया संचित में जुड़ता है और उत्कट क्रियमाण तात्कालिक फलदायी भी होता है। जब अच्छे कर्म करते बुरे भोग मिलें तो समझिए कि प्रारब्ध वश कोई जन्मांतर का पाप कर्म हम भोग रहे हैं और पाप कर्मरत सुखी दिखाई पड़े तो समझिये कि वह पूर्व जन्मों के पुण्य भोग रहा है। कर्मो का क्षय या तो भोग से होगा या ज्ञानाग्नि से उन्हें दग्ध किया जा सकता है। कर्म शुभ, अशुभ और मिश्रित होते हैं। आद्य शंकराचार्य के अनुसार मैं ब्रम्ह हूं ऐसा ज्ञान होते की करोड़ों कल्पों के संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं। ब्रम्ह और आत्मा की एकता जानने वाले तत्व ज्ञानी के पूर्व कर्म तो दग्ध हो ही जाते हैं, वह आगामी कर्मो अर्थात क्रियमाण से भी नहीं बंधता, क्योंकि वह निर्लिप्त भाव से उदासीनवत् कर्म कर रहा होता है और चलता फिरता साक्षात निर्गुण ब्रम्ह है। राज्य करते हुए भी राजा जनक का विदेह होना इसी स्थिति का द्योतक है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि हे अर्जुन! योग में स्थित रहकर, संग त्यागकर कर्म करते रहो।
- रघोत्तम शुक्ल
http://epaper.jagran.com/story1.aspx?id=17990&boxid=108144920&ed_date=12-oct-2012&ed_code=4&ed_page=10