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मेरे कृतित्व के आयाम
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Monday, 12 November 2012
दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं
शुभ हो दीपावली आपको , जीवन सब विधि सफल महान । श्री संम्पन्न करें मां लक्ष्मी , श्री गणेश पथ ज्योतिर्मान ।।
सभी मित्रों को दीपावली की हार्दिक शुभकामनाएं....
Sunday, 14 October 2012
कर्म और भाग्य
सृष्टि में कर्म प्रधान है या भाग्य, यह जिज्ञासा प्राय: मानव में बनी रहती है, क्योंकि बहुधा शुभ कर्मकर्ता कष्ट सहते, दुखी और पाप कर्मरत जीव सुखी दिखाई पड़ते हैं। मनीषियों ने कर्म प्रधान विस्व रचि राखा और करम गति टारे नाहिं टरी भी लिखा तथा होइहइ सोइ जो रामरचि राखा तथा विधाता के भाग्य लेख की भी बात लिखी है। सच क्या है? वास्तव में यह विरोधाभास दृश्यमान मात्र है और भ्रम भी है। जगत कर्म प्रधान ही है और मानव तन कर्म से ही निर्मित है। कर्म के तीन स्तर है 1. संचित, 2. प्रारब्ध और 3. क्रियमाण। असंख्य जन्मों में किए कर्म संचित के रूप में सदा जीव के साथ संलग्न रहते हैं और देहांतर पर सूक्ष्म शरीर के साथ संस्कार रूप में विराजमान रहते हैं। कर्म सामान्यत: भोगने से ही कटते या क्षय होते हैं। किसी जन्म विशेष में संचित का जो अंश प्राणी भोगता है उसे प्रारब्ध या भाग्य कहते हैं तथा वर्तमान में किया जाने वाले कर्म क्रियमाण कहलाता है जो सामान्यतया संचित में जुड़ता है और उत्कट क्रियमाण तात्कालिक फलदायी भी होता है। जब अच्छे कर्म करते बुरे भोग मिलें तो समझिए कि प्रारब्ध वश कोई जन्मांतर का पाप कर्म हम भोग रहे हैं और पाप कर्मरत सुखी दिखाई पड़े तो समझिये कि वह पूर्व जन्मों के पुण्य भोग रहा है। कर्मो का क्षय या तो भोग से होगा या ज्ञानाग्नि से उन्हें दग्ध किया जा सकता है। कर्म शुभ, अशुभ और मिश्रित होते हैं। आद्य शंकराचार्य के अनुसार मैं ब्रम्ह हूं ऐसा ज्ञान होते की करोड़ों कल्पों के संचित कर्म नष्ट हो जाते हैं। ब्रम्ह और आत्मा की एकता जानने वाले तत्व ज्ञानी के पूर्व कर्म तो दग्ध हो ही जाते हैं, वह आगामी कर्मो अर्थात क्रियमाण से भी नहीं बंधता, क्योंकि वह निर्लिप्त भाव से उदासीनवत् कर्म कर रहा होता है और चलता फिरता साक्षात निर्गुण ब्रम्ह है। राज्य करते हुए भी राजा जनक का विदेह होना इसी स्थिति का द्योतक है। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि हे अर्जुन! योग में स्थित रहकर, संग त्यागकर कर्म करते रहो।
- रघोत्तम शुक्ल
http://epaper.jagran.com/story1.aspx?id=17990&boxid=108144920&ed_date=12-oct-2012&ed_code=4&ed_page=10
Tuesday, 14 August 2012
देशगान
सकल वसुधा का है शिर मौर ,हमारा प्यारा भारत देश ।
जगत के शैल वर्ग में श्रेष्ठ तुहिनगिरि प्रहरी तुल्य विराट ।
अड़ा है अपना ताने वक्ष खड़ा है उन्नत किये ललाट । ।
यहां का तृण तृण है रमणीक,यहां का कण कण है अभिराम ।
इसे है कोटि नमन नतशीश इसे है बारम्बार प्रणाम ।।
धन्य रामेश्वर बदरीधाम स्वर्ग जिनके सम्मुख नि:सार ।
धन्य गंगा की पावन धार मृतक तक का करती उद्धार ।।
महा महिमा गुण अकथ अशेष ,हमारा प्यारा भारत देश ।।1।।
यहीं पर हुए उशीनर राज हुए हैं यहीं दधीच समान ।
दिया परहित में अपना मांस किया निज अस्थि जाल भी दान । ।
अहा ! गौतम गांधी की गाथ न कोई कहीं जिन्हें था त्याज्य ।
अहिंसा,सत्य,प्रेम के स्रोत लोक हित त्यागा तन साम्राज्य ।।
हुए हैं त्यागी यहां असंख्य कथा है जिनकी अपरम्पार ।
एक साधारण पशु के हेतु प्राण तक देने को तैयार ।।
हुए जग विदित दिलीप नरेश ,हमारा प्यारा भारत देश ।।2।।
कहानी बल पौरुष की 'शुक्ल' सदा है अमिट अपार अमन्द ।
हमारे रण कौशल का गान किया करते वृन्दारक वृन्द ।।
अभी है बात पड़ोसी पर था अत्याचार ।
चला था दमनचक्र इस भांति निठुरता कहती थी 'धिक्कार'।।
लुटा ललनावों का श्रृंगार किया तब हमने रण हुंकार ।।
बजी तबतो रणभेरी खूब हुई बैरी की भारी हार ।।
नहीं पर अहंकार है लेश ,हमारा प्यारा भारत देश ।।3।।
धन्य यह धरती परम पुनीत ,धन्य काशी,अजमेर,प्रयाग ।
यहीं पर हो अपना हर जन्म रहे इसकी रज से अनुराग ।।
धन्य भारत के श्रमिक, किसान,धन्य भारत के वीर जवान ।
धन्य ईश्वर अल्ला के नाम,धन्य हैं वेद, पुरान, कुरान ।।
हमें प्रिय है इसका जलवायु हमें इसकी मिट्टी से प्यार ।
न केवल हमी इसे नतमाथ इसे तो झुकता है संसार ।।
सुयश गाते हैं शारद शेष.हमारा प्यारा भारत देश ।।4।।
- रघोत्तम शुक्ल
जगत के शैल वर्ग में श्रेष्ठ तुहिनगिरि प्रहरी तुल्य विराट ।
अड़ा है अपना ताने वक्ष खड़ा है उन्नत किये ललाट । ।
यहां का तृण तृण है रमणीक,यहां का कण कण है अभिराम ।
इसे है कोटि नमन नतशीश इसे है बारम्बार प्रणाम ।।
धन्य रामेश्वर बदरीधाम स्वर्ग जिनके सम्मुख नि:सार ।
धन्य गंगा की पावन धार मृतक तक का करती उद्धार ।।
महा महिमा गुण अकथ अशेष ,हमारा प्यारा भारत देश ।।1।।
यहीं पर हुए उशीनर राज हुए हैं यहीं दधीच समान ।
दिया परहित में अपना मांस किया निज अस्थि जाल भी दान । ।
अहा ! गौतम गांधी की गाथ न कोई कहीं जिन्हें था त्याज्य ।
अहिंसा,सत्य,प्रेम के स्रोत लोक हित त्यागा तन साम्राज्य ।।
हुए हैं त्यागी यहां असंख्य कथा है जिनकी अपरम्पार ।
एक साधारण पशु के हेतु प्राण तक देने को तैयार ।।
हुए जग विदित दिलीप नरेश ,हमारा प्यारा भारत देश ।।2।।
कहानी बल पौरुष की 'शुक्ल' सदा है अमिट अपार अमन्द ।
हमारे रण कौशल का गान किया करते वृन्दारक वृन्द ।।
अभी है बात पड़ोसी पर था अत्याचार ।
चला था दमनचक्र इस भांति निठुरता कहती थी 'धिक्कार'।।
लुटा ललनावों का श्रृंगार किया तब हमने रण हुंकार ।।
बजी तबतो रणभेरी खूब हुई बैरी की भारी हार ।।
नहीं पर अहंकार है लेश ,हमारा प्यारा भारत देश ।।3।।
धन्य यह धरती परम पुनीत ,धन्य काशी,अजमेर,प्रयाग ।
यहीं पर हो अपना हर जन्म रहे इसकी रज से अनुराग ।।
धन्य भारत के श्रमिक, किसान,धन्य भारत के वीर जवान ।
धन्य ईश्वर अल्ला के नाम,धन्य हैं वेद, पुरान, कुरान ।।
हमें प्रिय है इसका जलवायु हमें इसकी मिट्टी से प्यार ।
न केवल हमी इसे नतमाथ इसे तो झुकता है संसार ।।
सुयश गाते हैं शारद शेष.हमारा प्यारा भारत देश ।।4।।
- रघोत्तम शुक्ल
Thursday, 19 July 2012
अष्टसिद्धियां
अष्टसिद्धियां
योग मार्ग में साधक का लक्ष्य ‘कैवल्य’ पद प्राप्त करना होता है। इस लक्ष्य को तभी प्राप्त किया जा सकता है जब साधक सोपान सिद्धियों में सिद्धस्त हो। ये आठ सिद्धियां हैं- अणिमा अर्थात अणु के समान सूक्ष्म रूप धारण कर लेना, लघऍ मा अर्थात शरीर को हल्का कर लेना, महिमा- शरीर को विशाल कर लेना, गरिमा अर्थात शरीर को भारी कर लेना, प्राप्ति यानी संकल्पमात्र से इच्छित भौतिक पदार्थ की प्राप्ति कर लेना, प्राकाम्य अर्थात निर्बाध भौतिक पदार्थ विषय इच्छा की पूर्ति अनायास हो जाना, वशित्व- पांचभूतों और उनसे जनित पदार्थो का वश में हो जाना एवं ईशित्व अर्थात भूत और भौतिक पदार्थो को विभिन्न रूपों में उत्पन्न करने और उन प र शासन करने की क्षमता पा लेना। पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश ये पांचभूत हैं, जिनसे शरीर बना है। इनमें हर एक की पांच अवस्थायें होती हैं- स्थूल अर्थात जैसी वे इंद्रियगोचर हों, स्वरूप यानी उनके लक्षण से, जैसे जल का गीलापन, अग्नि की गर्मी, सूक्ष्म अर्थात उनका परिणाम या तन्मात्र जैसे पृथ्वी से गंध, जल से रस, आकाश से शब्द आदि, अन्वय यानी सभी भूतों की प्रकाश क्रिया और स्थिति के गुण उनकी अऍ ्वय अवस्था है। अर्थवत्व-भूत, पुरुष के भोग और अपवर्ग के प्रयोजन हैं- यह उनकी अर्थवत्व अवस्था है। जब समस्त भूतों की पांचों अवस्थाओं में योगी ‘संयम’ कर लेता है तो उसे ‘भूतजय’ प्राप्त हो जाती है। जब एक ‘ध्येय’ पदार्थ में धारणा, ध्यान और समाधि तीनों हो जाएं तो योग की तकनीकी शब्दावली में उसे ‘संयम’ कहते हैं। ध्याता, ध्यान और ध्येय एक हों। इन ‘समाधिजा’ सिद्धियों के अलावा चार अन्य प्रक ार से भी सिद्धियां मिल सकती हैं-पूर्वजन्म की सिद्धि के आधार पर प्रारब्धानुसार नए जन्म में, औषधि सेवन से, मंत्र जप से तथा तप से। यदि सिद्धियों में रागात्मिका वृत्ति हुई और निजहित में प्रयोग हुआ तो ये मुमुक्ष के लिए बाधा हैं। लोक हित में ही इनका प्रयोग होना चाहिए, अन्यथा साधक इनसे विरक्त ही रहें।
- रघोत्तम शुक्ल
(यह आलेख दैनिक जागरण समाचार पत्र में दिनांक 19जुलाई 2012 को प्रकाशित हुआ । ) http://www.jagrancom.com/story.aspx?edorsup=Sup&queryed=187&querypage=1&boxid=104863920&id=1872&ed_date=04/02/2012
Sunday, 13 May 2012
ध्यान के चमत्कार
lk/kuk ds iFk ij /;ku vFkkZr eu dk fdlh ,d fcUnq] oLrq ;k fo"k; ij dsfUnzr djuk vR;Ur egRowiw.kZ ,oa peRdkfjd ifj.kke iznk;d gksrk gSA fpRr o`fÙk;ksa dk fujks/k gh ;ksx gSA vfgalk lR;] vLrs; ;k pksjh u djuk] czãp;Z] vkSj vifjxzg uked ikap ;e rFkk 'kkSp larks"k] ri] Lok/;k; ,oa bZ'oj dh 'kj.kkxfr uked ikap fu;e ikyu djrs gq, 'kq) vklu ij cSBsA egf’kZ irUtfy ds vuqlkj fLFkj lq[kklu gksA xhrk ds vuqlkj dq'k e`xpeZ vkSj oL= mijksifj fcNkdj] nsg xyk vkSj f'kj ,d lh/k esa fLFkj j[kdj cSBsA izk.kk;ke dj bfUnz;ksa dh okâ; o`fRr;ksa dks lesVdj eu esa yhu djsa] ftls izR;kgkj dgrs gSa] fQj fdlh var% ;k okâk ns'k esa fpRr BgjkosA ;g /kkj.kk gSA ukfHkpØ] ân; dey] ukfldk dk vxz Hkkx] nksuksa HkqdqfV;ksa ds chp dk LFkku ;k *f=iqVh* vFkok lw;Z] pUnz] vkjk/; nso dk eq[; vkfn blds fy;s pqus tk ldrs gaSA tgk¡ fpRr yxk;k tk;s mlh esa o`fRr dk ,drkj pyuk /;ku gSA eu vR;Ur cy'kkyh vkSj pUpy gSA mls ,d LFkku ij dsfUnzr djus ls vikj ÅtkZ izLQqfVr vkSj fu%l`r gksrh gSA /;ku ds fy, *f=iqVh* ;k vkKkpØ dh cM+h egÙkk crkbZ xbZ gSA eu viuh pkSlB jf'e;ksa ds lkFk ;gha jgrk gSA vkKkpØ esa /;ku yxkus ls lk/kd lkjs lalkj dk fgrdrkZ] lc 'kkL=ksa dk Kkrk] f=yksd ds ikyu lagkj djus dh 'kfDr okyk gksrk gSA blls *mUeuh* rd dh xfr gks tkrh gSA /;kudrkZ dks igys dqgjk] /kqok¡] lw;Z] ok;q vkSj vfXu ds ln`'k] tqxquw] fctyh] LQfVd vkSj pUnzek ln`'k cgqr ls n`'; fn[krs gSaA bls /;ku dh lQyrk ekuuk pkfg,A *uhgkj] /kwekdkZ fuykuykuka] [k|ksr fo|qRLQfVd“k'khuke~ *¼'osrk'oj mifu"kn~ v/;k&2 'yksd 11½ 'kjhj gYdk] jksxjfgr] pedhyk gksus yxs] Loj e/kqj] fo"k;ksa ls fuo`fÙk] nsg ls lqxU/k fudyus yxs½ rks lef>;s] ;ksx dh igyh flf) gks xbZA tyrs gq;s nhid dk izdk'k nf'kZr gksuk izk;% lHkh txg of.kZr gSA *Toyn~nhikdkja rnuq p uohukdZ cgqy*A vFkkZr~ /;kuLFk ;ksxh dks igys tyrs nhid dk izdk'k fQj izkr%dkyhu lw;Z dh T;ksfr dk vkHkkl gksrk gSA 'osrk'oj mifu"kn esa Þnhiksiesusg ;qDr% izi';sr~* dgk x;k gS A xhrk v/;k; 14 esa mYys[k gS *loZ }kjs’kq dkSUr; izdk'k mitk;rs*A *l?ku vkSj vfojy /;ku ls tc dsoy */;s;* dh gh izrhfr jg tk;s rks mls lekf/k dgrs gaSA http://bit.ly/J7zuO3
(यह आलेख दैनिक जागरण में 10 मई को प्रकाशित हुआ । )
Sunday, 15 April 2012
देह का पराविज्ञान
अध्यात्म ग्रंथों और यौगिक क्रियायों द्वारा किए गए शोधों के अनुसार शरीर तीन स्तरों और पंच कोषों वाला है। तीन स्तर हैं-स्थूल, सूक्ष्म और कारण तथा पंच कोष हैं-अन्नमय, मनोमय, प्राणमय, विज्ञानमय तथा आनंदमय। स्थूल देह के भीतर सूक्ष्म देह, सूक्ष्म के भीतर कारण देह और कारण देह के भीतर आत्मा विराजमान है। स्थूल देह पंच महाभूतों अर्थात् पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु से बना है। मज्जा, अस्थि, मेद, मांस, रक्त, चर्म और त्वचा नामक सप्त धातुएं इसके सृजन के हेतु हैं। यही अन्नमय कोष है। पृथ्वी रूप भूत इसका अधिपति है। सूक्ष्म शरीर में सूक्ष्म अथवा अपंचीकृत, पांच कर्मेन्द्रियां अर्थात् वाक, पाणि, पाद, गुदा और उपस्थ, पांच ज्ञानेंद्रियां अर्थात् श्रवण, त्वचा, नेत्र, घ्राण एवं रसना, पंचप्राण यानी प्राण अपान, व्यान, उदान और समान तथा अविद्या, काम व कर्म।
यह शरीर मनोमय, प्राणमय और विज्ञानमय कोषों से युक्त है। मन, प्राण और बुद्धि क्रमश: इनके अधिपति हैं। कारण देह सत, रज, तम इन गुन गुणों से बना है। कारण शरीर की अधिष्ठात्री अविद्या है। जीव यहीं आनंद सिंधु में डूबा रहता है। जागृत काल में स्थूल शरीर से व्यवहार होता है। स्वप्नावस्था में सूक्ष्म शरीर से तथा सुषुप्ति में कारण शरीर या अविद्या से व्यवहार होता है। सोई हुई अवस्था में जीव ब्रह्लीन होने पर भी अपनी स्वतंत्रता नहीं खोता और पुन: अपना स्वभाव लेकर जागृत हो जाता है। आत्मा सच्चिदानन्द स्वरूप और निर्मल है, किंतु त्रिविध देह रूप आवरण के दोष से दूषित होकर और दुखी प्रतीत होता है। सूक्ष्म शरीर मन को प्रसन्न, सद्भावयुक्त, अध्यात्म विषयों में चिंतनरत, शुभ विचारलीन रखने, बुद्धि को आत्मा प्राप्ति और सुखप्रद निश्चय करने में लीन रखने से शुद्ध होता है। जब आत्म प्राप्ति ही एकमात्र चेष्टा हों तो समझिये कारण देह पूर्ण स्वच्छ हो गई। आदि शंकराचार्य के अनुसार इस आत्मा को अखंड, बोध स्वरूप, सत, नित्य, सर्वगत, सूक्ष्म, भेद रहित और अपने आपसे सर्वथा अभिन्न मानकर व्यक्ति पापरहित निर्मल और अमर हो जाता है।(आलेख 15 अप्रैल को दैनिक जागरण में प्रकाशित हुआ । ) http://epaper.jagran.com/epaper/15-apr-2012-4-delhi-edition-delhi-city-Page-10.html
Sunday, 25 March 2012
कृष्ण की कर्मभूमि में अकर्म को समर्थन
द्वापर युग के अन्त में भगवान विष्णु अपनी सम्पूर्ण कलावों सहित पृथ्वी पर श्रीकृष्ण के रूप में पधारे और उन्होंने भारत के उत्तर प्रदेश को अपनी जन्म और कर्मभूमि के लिए चुना । विश्व प्रसिद्ध ‘गीता’ और उसके ’कर्मयोग’ के उपदेश उन्हीं के हैं , जो विषाद-ग्रस्त,कर्म विमुख हो रहे ,जीव राशि के प्रतीक अर्जुन को उन्होंने दिये तथा संसार में संघर्ष करते रहने हेतु प्रेरित कर प्रवृत्त किया । वे ब्रह्म स्वरूप मान्य हुए और उनकी जन्म,कर्म स्थली ‘तीर्थ’ बन गई । अर्जुन द्वार वे ‘हे कृष्ण ! हे यादव ! हे सखेति !’कहकर पुकारे गये ।
हाल ही में इसी उत्तर प्रदेश में विधानसभा चुनाव सम्पन्न हुए, जिनमें एक ‘यादव’ की ही पार्टी को पूर्ण बहुमत मिला और उनके पुत्र ने सत्ता संभाल ली । चुनाव में मतदान जब आशातीत हो रहा था ,तब स्थिति अस्पष्ट थी और ऐसा भी सोच बन रहा था कि जनता में लोकतंत्र के प्रति आस्था बढ़ी है, पर अब यह स्पष्ट हो रहा है कि यह मतदान की बहुलता ‘यादव’पार्टी द्वारा मुफ्त बेरोजगारी भत्ता,लैपटॉप,टैबलेट प्रदान करने तथा अन्य प्रकार की अनुग्रह धनराशियां देने के पक्ष में था । प्रदेशवासी , खासकर युवा अकर्मशील रहकर धन एवं सामग्री पाने का समर्थन कर रहे थे। कितना फर्क है अलग-अलग युगों के अलग-अलग ‘यादवों’ में । एक ने कर्म में प्रवृत किया तो दूसरे ने कर्म से विरत ।
द्वापर युगीन ‘यादव’ का जन्म तो जेल में हुआ किन्तु कर्म वंदनीय थे । कलियुगी ‘यादव’पर अनेक आपराधिक मामले थे और प्रचलित हैं । सीबीआई जांच भी है । जीतने वाले 224 नियामकों,जिन्हें विधायक कहेंगे,111 पर आपराधिक मामले हैं । जेल का मंत्री जेल जाने का अनुभव रखता है । आगे भगवान मालिक है । हां ! मैं प्रदेश के युवावों को ललकारता हूं कि वे कर्म के अधिकार पर जोर दें,रोजगार पाने का हठ करें,स्वाभिमान जिन्दा रखें । ‘खैरात’ पाने के लिए लाइन न लगावें ।
Saturday, 17 March 2012
ऊर्जा: कुण्डलिनी रहस्य
साधक के लिए कुण्डलिनी और उसका जागरण सदा से जिज्ञासा का विषय रहा है । यह
'शक्ति' और सर्वोच्च वैश्विक ऊर्जा है ,जिसे 'शिवसूत्र' में परब्रह्म की 'इच्छा
शक्ति उमा कुमारी ' कहा गया है । जापान में इसे 'की' चीन में 'ची'तथा इसाई धर्म
ग्रन्थों में 'होली स्पिरिट' कहा गया है । शरीर में 72000 नाड़ियां होती हैं
। इनमें इड़ा , पिंगला और सुषुम्ना, प्रधान हैं । ये मेरुदंड या रीढ़ के बीच
में स्थित होकर संपूर्ण नाड़ी तंत्र एवं तन को नियंत्रित करती हैं । इसी के
नीचे 'मूलाधार चक्र' में तीन इंच लंबी कुण्डलिनी चक्र रूप अर्थात कुण्डली मारे
स्थित रहती है । सुषुम्ना के अंदर भी 'चित्रिणी' नामक एक नाड़ी है । कुण्डलिनी
जागृत होने पर इसी चित्रिणी के अंदर से सीधी होकर ऊपर को जाकर 'सहस्रार या
शिवस्थान'पर पहुंचती है । इन सबकी स्थिति इतनी सूक्ष्म है कि विज्ञान या
चिकित्सा शास्त्र से दर्शनीय या ग्रहणीय नहीं है । साढ़े तीन चक्र मारे बैठी
कुण्डलिनी जागरण के विविध उपाय हैं - यथा उत्कट भक्ति , यौगिक क्रियाएं , मंत्रजप ,
गुरु द्वारा शक्तिपात और कभी-कभी पूर्व जन्मों की संसिद्धि के आधार पर
'अकस्मात' । जागृत होने पर तत्काल पूर्व कर्मों के प्रभाव बाहर आ जाते हैं तथा
व्यक्ति विक्षिप्तों जैसा आचरण करने लगता है । योग्य गुरू की सहायता बिना
कुण्डलिनी जागरण खतरनाक सिद्ध हो सकता है । प्रारंभ में तन्द्रा सी अनुभूत होती
है और नदी,देवता,साधु,संत,अंत:दृश्य में आते हैं । वह स्वप्नावस्था नहीं होती
है । वह जागृत होकर उपरिगामी होती है और सुषु्म्ना के छहों चक्रों -
मूलाधार,स्वाधिष्मान, मणिपूर ,अनाहत ,विशुद्ध और आज्ञा का भेदन करती है । आज्ञा
'चक्र'दोनो भौहों के बीच का स्थान है जिसे 'त्रिपुटी' भी कहते हैं । तदनन्तर
'नाद'और'बिन्दु'उसका गन्तव्य है । बिन्दु सहस्त्रों ग्रन्थियों वाला सहस्त्रार
है जहां त्रिकोण में 'परमशिव'विराजमान हैं । वहां कुण्डलिनी के पहुंचने पर
सहस्त्रों सूर्यों का शीतल नीला प्रकाश दर्शित होता है । साधक परमानन्द में डूब
जाता है । गूंगे का गुड़ है । कबीर कहते हैं - 'उनमनि चढ़ा मगन रस पीवै'।
'हंस', 'सोहं' , 'हूं क्षूं' के उच्चारण तथा खड़े होकर अपनी एड़ियों से मूलाधार
पर हल्के प्रहार भी कुण्डलिनी जागरण में सहायक होते हैं । मानव मात्र के लिए
किसी भी लौकिक सुख से ऊपर ब्रह्मानंद होता है ,जो उसे कुण्डलिनी जागरण से
प्राप्त होता है, तब वो पूर्णकाम और धन्य हो जाता है । ऐसा आत्मज्ञानी व्यक्ति
जीवन मुक्त होकर ब्रह्म से तादात्म्य करता है और वसंत ऋतु के समान लोकहित करता
हुआ दूसरों को भी तारता रहता है ।
(यह आलेख दैनिक जागरण में दिनांक 17 मार्च को प्रकाशित हुआ ।)
Friday, 24 February 2012
वेदों में सोम
वैदिक वाड्गमय में 'सोम' का वर्णन आया है तथा उसके रस को पान करने व उसके
प्रभाव का पर्याप्त उल्लेख है । उसकी स्तुतियां भी की गईं है । ऋग्वेद के नवम्
मंडल व सामवेद के 'पवमान'पर्व में सोम विषयक मंत्र एकत्र हैं । मूलत: सोम
पर्वतीय क्षेत्र में पाई जाने वाली कोई अत्यन्त गुणकारी वनस्पति ही थी जिसे
पत्थरों से घर्षण करके उसके हरित वर्ण रस को निकाला जाता था फिर उसे एक घड़े
में ऊनी कपड़े से छाना जाता था । इस तरह घड़े मे एकत्र हरित रस को दूध में
मिलाकर विशेषकर यज्ञ के अवसर पर उसका पान किया जाता था । शकर और मधु जैसे उफान
(फोमेंटेशन) उत्पन्न करने वाले पदार्थ उसमें नहीं मिलाये जाते थे,जिससे उसके
मादक पदार्थ होने की संभावना नहीं है । साथ ही यह भी कि वह तत्काल ही पान कर
लिया जाता था । अत: मादकता आने की संभावना नहीं थी । इतना अवश्य है कि इसके पान
से उत्साह,साहस और बल अत्यधिक बढ़ जाता था,जिससे इसके मादक होने का भ्रम लोगों
में उत्पन्न हो जाता है । वेदों के कुछ मंत्र इसके गुणों पर प्रकाश डालते हैं
यथा - "इन घूंटों ने मुझे तीव्र पवन के समान उठा दिया है । क्या मैने सोमरस पान
किया है ? " तथा "मैं पृथ्वी को उठा लूंगा और यत्र तत्र रख दूंगा । क्या मैने
सोमरस का पान किया है ?" इन प्रसंगों मदिर शब्द भी आया है किन्तु उसका
'आनन्ददायक' ही है 'उन्मादक' नहीं है । सभाओं और युद्ध में भी इसका पान किया
जाता था । प्राचीन फारस के 'जरोष्ट्रियन'भी इसी प्रकार का एक पेय रखते थे,जिसे
वो HAOMA कहते थे । भारतीय चिंतन और संस्कृति में वनस्पति और औषधियों का पोषक
चन्द्रमा है,जिसे सोम भी कहते हैं । इसे देवता का दर्जा दिया गया है और इस हेतु
गुणवन्ती सोम वनस्पति को देवता मनते हुए स्तुतियां भी की गईं हैं । इसे
'प्रकृति देवसत्ता' भी कहा गया है । यह गुणशालिनी रसवन्ती वनस्पति अब खोज से
बाहर है,जैसे रामायण वर्णित 'संजीवनी'। इनकी खोज की जानी चाहिए । इसकी प्राप्ति
से मानव कल्याण का पथ प्रशस्त होगा । सामवेद में कहा गया है कि -"शरीर में
प्रविष्ट हुआ सोमरस समस्त श्रेयों को प्राप्त कराता हुआ जीव के लिए शक्ति दाता
होता है ।"वो आसुरी भावों को दूर कर उसे दैवी भावों से भर देता है ।
(यह आलेख दैनिक जागरण के संपादकीय पृष्ठ पर दिनांक 25 फरवरी 2012 को प्रकाशित हुआ । )
प्रभाव का पर्याप्त उल्लेख है । उसकी स्तुतियां भी की गईं है । ऋग्वेद के नवम्
मंडल व सामवेद के 'पवमान'पर्व में सोम विषयक मंत्र एकत्र हैं । मूलत: सोम
पर्वतीय क्षेत्र में पाई जाने वाली कोई अत्यन्त गुणकारी वनस्पति ही थी जिसे
पत्थरों से घर्षण करके उसके हरित वर्ण रस को निकाला जाता था फिर उसे एक घड़े
में ऊनी कपड़े से छाना जाता था । इस तरह घड़े मे एकत्र हरित रस को दूध में
मिलाकर विशेषकर यज्ञ के अवसर पर उसका पान किया जाता था । शकर और मधु जैसे उफान
(फोमेंटेशन) उत्पन्न करने वाले पदार्थ उसमें नहीं मिलाये जाते थे,जिससे उसके
मादक पदार्थ होने की संभावना नहीं है । साथ ही यह भी कि वह तत्काल ही पान कर
लिया जाता था । अत: मादकता आने की संभावना नहीं थी । इतना अवश्य है कि इसके पान
से उत्साह,साहस और बल अत्यधिक बढ़ जाता था,जिससे इसके मादक होने का भ्रम लोगों
में उत्पन्न हो जाता है । वेदों के कुछ मंत्र इसके गुणों पर प्रकाश डालते हैं
यथा - "इन घूंटों ने मुझे तीव्र पवन के समान उठा दिया है । क्या मैने सोमरस पान
किया है ? " तथा "मैं पृथ्वी को उठा लूंगा और यत्र तत्र रख दूंगा । क्या मैने
सोमरस का पान किया है ?" इन प्रसंगों मदिर शब्द भी आया है किन्तु उसका
'आनन्ददायक' ही है 'उन्मादक' नहीं है । सभाओं और युद्ध में भी इसका पान किया
जाता था । प्राचीन फारस के 'जरोष्ट्रियन'भी इसी प्रकार का एक पेय रखते थे,जिसे
वो HAOMA कहते थे । भारतीय चिंतन और संस्कृति में वनस्पति और औषधियों का पोषक
चन्द्रमा है,जिसे सोम भी कहते हैं । इसे देवता का दर्जा दिया गया है और इस हेतु
गुणवन्ती सोम वनस्पति को देवता मनते हुए स्तुतियां भी की गईं हैं । इसे
'प्रकृति देवसत्ता' भी कहा गया है । यह गुणशालिनी रसवन्ती वनस्पति अब खोज से
बाहर है,जैसे रामायण वर्णित 'संजीवनी'। इनकी खोज की जानी चाहिए । इसकी प्राप्ति
से मानव कल्याण का पथ प्रशस्त होगा । सामवेद में कहा गया है कि -"शरीर में
प्रविष्ट हुआ सोमरस समस्त श्रेयों को प्राप्त कराता हुआ जीव के लिए शक्ति दाता
होता है ।"वो आसुरी भावों को दूर कर उसे दैवी भावों से भर देता है ।
(यह आलेख दैनिक जागरण के संपादकीय पृष्ठ पर दिनांक 25 फरवरी 2012 को प्रकाशित हुआ । )