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मेरे कृतित्व के आयाम
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Tuesday, 23 April 2013
जपयोग
आत्मा के परमात्मा से योग की विधियों में जपयोग का बड़ा महत्व है जिसमें मंत्र-जप सहित ध्यान माध्यम बनता है। ध्यान अपने आराध्य के पूर्ण चित्र या शरीर के किसी विशेष भाग पर अथवा मंत्र के अर्थ या शब्दों पर किया जाता है। मंत्र गुरु प्रदत्त होना चाहिए। गुरु मंत्र न होने पर आकार में छोटा मंत्र चुने, जैसे राम या ओम आदि। मंत्र का उद्देश्य ही है कि मनन से त्रण दिलाने वाला। कहा गया है कि शब्द में महान शक्ति होती है और मंत्र-स्वर की लहरियां संपूर्ण आकाश मंडल में प्रवाहित होकर प्रभाव डालती हैं। मंत्र के चित्र या श्री विग्रह भी होते हैं। मंत्रर्थ न जानते हुए या अज्ञानी होते हुए भी यांत्रिक ढंग से जप करने पर भी वैज्ञानिक आधारों पर मंत्र से संबंधित स्वरूप साधक के अंत:करण में प्रविष्ट होकर आत्म प्रकाश फैलाएगा। मंत्र जप तीन प्रकार का होता है। वैखरी अर्थात् स्फुट उच्चारण करके, उपांशु अर्थात बहुत हल्केस्वर से अर्थात जिसे दूसरा न सुन-समझ सके और मानसिक, जो अंदर ही अंदर चले। जप में ज्यो-ज्यों आगे बढ़ते जाएंगे, ध्यान की सघनता और आराध्य में संलग्नता बढ़ती जाएगी और कालांतर में अविरल ध्यान ही चलेगा, जो समाधि या ब्राह्मी स्थिति में परिवर्तित हो जाएगा। साध्य प्राप्त हो जाने पर साधन के उपयोग की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसी स्थिति में मंत्र की विशेष उपयोगिता नहीं रह जाती है।
गीता के दशम अध्याय में अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि यज्ञों में मैं जपयज्ञ हूं। वीर शिवाजी के गुरु रामदास को आध्यात्मिक ऊंचाइयां श्रीराम जयराम जय जय राम के जप से मिलीं, जिसे उन्होंने गोदावरी के जल में खड़े होकर तेरह करोड़ बार जपा। स्पष्ट है कि जप की महत्ता अनिर्वचनीय और लोक हितकारी है। जिसने भी जप का महत्व समझ लिया और अपने तथा लोक के कल्याण के लिए इसका सहारा लिया उसे इसका लाभ मिलना तय है।
रघोत्तम शुक्ल
http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/23-apr-2013-edition-Delhi-City-page_8-16555-104940208-4.html(यह आलेख दैनिक जागरण में दिनांक 23 अप्रैल 2013 को प्रकाशित हुआ । )