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                                                                      जपयोग
                                                                   _________


आत्मा के परमात्मा से योग की विधियों में जपयोग का बड़ा महत्व है जिसमें मंत्र-जप सहित ध्यान माध्यम बनता है। ध्यान अपने आराध्य के पूर्ण चित्र या शरीर के किसी विशेष भाग पर अथवा मंत्र के अर्थ या शब्दों पर किया जाता है। मंत्र गुरु प्रदत्त होना चाहिए। गुरु मंत्र न होने पर आकार में छोटा मंत्र चुने, जैसे राम या ओम आदि। मंत्र का उद्देश्य ही है कि मनन से त्रण दिलाने वाला। कहा गया है कि शब्द में महान शक्ति होती है और मंत्र-स्वर की लहरियां संपूर्ण आकाश मंडल में प्रवाहित होकर प्रभाव डालती हैं। मंत्र के चित्र या श्री विग्रह भी होते हैं। मंत्रर्थ न जानते हुए या अज्ञानी होते हुए भी यांत्रिक ढंग से जप करने पर भी वैज्ञानिक आधारों पर मंत्र से संबंधित स्वरूप साधक के अंत:करण में प्रविष्ट होकर आत्म प्रकाश फैलाएगा। मंत्र जप तीन प्रकार का होता है। वैखरी अर्थात् स्फुट उच्चारण करके, उपांशु अर्थात बहुत हल्केस्वर से अर्थात जिसे दूसरा न सुन-समझ सके और मानसिक, जो अंदर ही अंदर चले। जप में ज्यो-ज्यों आगे बढ़ते जाएंगे, ध्यान की सघनता और आराध्य में संलग्नता बढ़ती जाएगी और कालांतर में अविरल ध्यान ही चलेगा, जो समाधि या ब्राह्मी स्थिति में परिवर्तित हो जाएगा। साध्य प्राप्त हो जाने पर साधन के उपयोग की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसी स्थिति में मंत्र की विशेष उपयोगिता नहीं रह जाती है। गीता के दशम अध्याय में अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि यज्ञों में मैं जपयज्ञ हूं। वीर शिवाजी के गुरु रामदास को आध्यात्मिक ऊंचाइयां श्रीराम जयराम जय जय राम के जप से मिलीं, जिसे उन्होंने गोदावरी के जल में खड़े होकर तेरह करोड़ बार जपा। स्पष्ट है कि जप की महत्ता अनिर्वचनीय और लोक हितकारी है। जिसने भी जप का महत्व समझ लिया और अपने तथा लोक के कल्याण के लिए इसका सहारा लिया उसे इसका लाभ मिलना तय है।                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                                    -  रघोत्तम शुक्ल                                                            http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/23-apr-2013-edition-Delhi-City-page_8-16555-104940208-4.html(यह आलेख दैनिक जागरण में दिनांक 23 अप्रैल 2013 को प्रकाशित हुआ । )
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                                  देवता और हम: कौन श्रेष्ठ



हमारे प्राचीन ग्रन्थों में मनुष्येतर विभिन्न योनियों के संदर्भ, उल्लेख और वर्णन है । देवता, यक्ष, किन्नर, गन्धर्व, चारण, सिद्ध, असुर, वसु आदि इनके उदाहरण हैं ।देवता सामान्यतया सर्वगुण सम्पन्न, समस्त सुन्दर भोगों को करने वाले तेजोमय अजर अमर प्राणी मान जाते है, जिनका निवास स्वर्ग है। देव, मनुष्यों के लिए उपमान और आदर्श है, सामान्यतया स्वर्ग मानव का अभीष्ट । उन्हें पृथ्वीतर अन्य सभी जीवों से श्रेष्ठ तथा परब्रह्म परमात्मा का सहयोगी व कनिष्ठ अधिकारी के रूप में समझा जाता है। इनकी संख्या 33 करोड़ कही गई है। इनमें 12 प्रमुख है जो अदिति के पुत्र है। इन्हें आदित्य कहते है यथा विवस्वान, अर्यमा, पूषा, त्वष्टा, सविता, भग, धाता, विधाता, वरुण मित्र,शक्र,उरुक्रम। आदित्यों में विष्णु (उरुक्रम) सर्वश्रेष्ट हैं। वृहदारण्यकोपनिषद में याज्ञवल्कय ने साकल्य से देवताओं की संख्या 33 बतलाई है। उन्होंने देवताअों को अनेक रूप धारण करने वाला भी बतलाया है। सभी देवताओं के नायक इन्द्र है जिन्हें सुरेश, शक्र, सुनाशीर भी कहते हैं । इनकी पत्नी 'शची' है। स्वर्ग तरह-तरह के सुख भोगों की खान है, अप्सरायें वहां नृत्य करती हैं मनोवांछित पदार्थ उपलब्ध है। वहां के उद्यान अतिनयनाभिराम हैं। श्रीमद् भागवत में वैश्रम्भक, सुरसन, नन्दन, पुष्पभद्र, मानस, चैत्ररथ नामक देवोद्यानो का उल्लेख  है।
                        


                                           देवों के विषय में प्रसिद्ध है कि उनके चरण भूमि को स्पर्श नहीं करते, उनकी पलकें नहीं झपकतीं, उनका सौंदर्य यथावत रहता है और उनके गले की पुष्पमाला अम्लान रहती है। वे यों तो सूक्ष्म देहधारी है किन्तु आवश्यकतानुसार इच्छित देह धारण कर लेते है। उनमें वरदान देने की भी शक्ति है । कुंत्ती के कर्ण, युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन क्रमशः सूर्य, धर्म, वायु और इन्द्र के वरदान से  उत्पन्न हुए। श्रुतियों और स्मृतियों के वर्णन से स्पष्ट होता है कि देवता पदाधिकारी है और हर कल्प के आदि में निश्चित नाम रूप एेश्वर्य वाले देवता, ब्रह्मा द्वारा उत्पन्न किये जाते है उनमें जीव बदल जाते है, अतः देवों के जीव नश्वर होते  हुए देव अनादि और नित्य हैं ।
देवताओं और मनुष्यो में एक सह-संबंध है। हम उनहें भोगार्थ यज्ञ का भाग व अन्य अच्छे पदार्थ अर्पित करते है और वे हमें अपनी सूक्ष्म और प्रभावी शक्ति से मनोवांछित फल देते है। सृष्टि सृजन के समय मानवता को पितामह ब्रह्मा जी ने एेसा ही आदेश दिया। गीता के तसरे अध्याय में श्लोक संख्या 11 और 12 में प्रजापति ब्रह्मा का मनुष्यों के नाम संदेश दिया गया है जिसका सरल हिन्दी में काव्यानुवाद इस प्रकार है

 करो यज्ञ के द्वारा ही तुम सदा देवगण की उन्नति।
तथा देवता भी तुम सबकी  करते रहें सदैव प्रगति ।।
हे प्रिय प्रजाजनो यह उत्तम पथ जब तुम अपनावोगे ।
करते हुए परस्पर उन्नति परम श्रेय पा जावोगे।।11।। 

इच्छित भोग प्रदान कथेंगे देव यज्ञ भावित होकर।                     
अर्पण बिना किये उनको जो भोग करे वह नर तस्कर ।।  (गीता दोहन से)

  इस प्रकार दोनों एक दूसरे के पूरक है कुछ विशेषतायें उनमें हैं कुछ हममे हैं। यहां जब हम देवताओं और मनुष्यों का तुलनात्मक वर्णन करते है तो ब्रह्मा, विष्णु, महेश की की बाते नहीं उठाते, क्योंकि यह बृहत्रयी से विराट की ही रूप है और हमारी उनसे तुलना नहीं हैं।



                                          मनुष्य जिन्हें अपने आदर्श और जिस लोक को (स्वर्ग) अपना अभीप्सित गन्तव्य मानता है, वह वास्तव में वैसा  नहीं है जैसा ऊपर से समझ में आता है। देव भी पूर्ण नहीं हैं। वे सूक्ष्म देह धारी है और स्थूल भोग नहीं कर सकते, वे हमारे अर्पण पर निर्भर करते हैं। उस स्वर्ग की प्राप्ति अखण्ड सकाम पुण्यों के प्रतिफलस्वरूप  मिलती है और पुण्य क्षीण होने पर मृत्युलोक में वापस आना पड़ता है। राजा नहुष का इन्द्र पदवी पाना और महान पाप करने पर पुण्य क्षय की स्थिति  हो जाने  पर शापित हो पृथ्वी पर सर्प हो जाने की कथा प्रसिद्ध है । समय समय पर देवता भी अपने चरित्र से विचलित हुए हैं और मानवता (विशेषकर ऋृषियों ) ने उनहें अभिशप्त किया है। उनकी योनि भोग योनि है , उन्हें कर्म का अधिकार नहीं है जो केवल हमें प्राप्त है। हम स्थूल भोग कर सकते हैं, थोड़े ही दिन सही। इसके अतिरिक्त मनुष्य का अंतिम लक्ष्य नश्वर स्वर्ग नहीं बल्कि मोक्ष है जो देवताओं का भी लक्ष्य है। कुछ श्रुतियोें में देवताओं का भी कर्म में और ब्रह्म विद्या में अधिकार बताया गया है। उदाहरणार्थ देवा वै सत्रमासत( तै सं 21313) की श्रुति से स्पष्ट है कि देवों ने यज्ञ का अनुष्ठान किया। इसी प्रकार बृहदारण्यकोपनिषद में उनका ब्रह्म विद्या में भी अधिकार बताया गया है। अाचार्य वादरायण भी इसकी पुष्टि  करते हैं, किन्तु इस बिंदु पर बात यह सही लगती  है कि कर्म क्षेत्र केवल पृथ्वी है, देव लोक नहीं , ब्रह्म विद्या का पुरुषार्थ और कर्म मनुष्य ही कर सकता है । विलासी और अशरीरी देव नहीं । शरीरमाद्यम्  खलुधर्मासाधनम्,  अर्थात शरीर( स्थूल देह) ही धर्म का साधन है । आचार्य जैमिनि का मत भी यही है कि देवगण का कर्म औऱ मधु विद्या में अधिकार नहीं हैं। ब्रहम्मसूत्र पाद। अध्याय  3 के 31 वें सूत्र में लिखा है:-
                                       मध्वा दिष्वसम्भवादनधिकारं जैमिनि।



                                             मनुष्य में काम, क्रोध, लोेभ, मोह जैसे विकार होते है, आज का मनुष्य कुछ अधिक ही स्वार्थपरता और विकर्मों में लीन है, वह भौतिक उपलब्धियों के अम्बार हर कीमत पर लगाकर अपने को सुखी बनाना चाहता है जिससे उसकी छवि मलिन हो गई है। हम अपने वास्तविक स्वरूप को भूल गये है। इतिहास और पुराण साक्षी हैं कि मानव वीर देवताओं के सहायतार्थ रण करने जाते रहे हैं। दशरथ और मुचकुन्द  जैसे वीरों को कौन नहीं जानता, जिन्होंने असुरों से युद्ध में देवताओं की सहायता की । तेजस्वी पुरुरवा वीर अर्जुन और तपस्वी विश्वामित्र की सेवा में देव रमणियां उपस्थित हुई, दिनकर जी कहते है -
          नर के वश की बात देवता बने कि नर रह जाये ।
         रूके गंध पर या बढ़कर फुलों को गले लगाये ।।
        पर सुर बने मनुज भी वे यह स्वत्व ना पा सकते हैं ।
        गंधों की सीमा से आगे देव ना जा सकते हैं ।।


यदि हम विकारों को त्याग कर विकर्मों  से दूर रह संयमशाली बनेे और निष्काम सत्कर्मों  से सुपथ पर अग्रसर हो जायं तो पुराण कल्पित स्वर्ग,  पृथ्वी की तुलना में तुच्छ तथा श्रुति वर्णित देवगण से हम हर तरह से श्रेष्ठ है ।



                                                                                                                          रघोत्तम शुक्ल
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                                           मंगल कलश


धार्मिक अनुष्ठानों में कलश या 'घट' स्थापित करने की पावन परंपरा प्राचीन है ।  कलश मांगलिक चिन्ह है। जप या पाठ का अनुष्ठान हो या यज्ञ, हवन, जलपूर्ण घट अवश्य रखा जाता है। शुभ अवसरों पर भी कलश रखे जाते है ।  वनवास के उपरान्त भगवान के अयोध्या आगमन पर पुरवासियों ने सोने के  कालश अपने -अपने घर पर रखे थे।
कंचन कलश विचित्र संवारे। सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे।

                                                    यही नहीं श्री राम की बरात जनकपुर पहुंचने पर  राजा जनक ने जो वस्तुएं स्वागत  में भेजी उनमें जल भरे हुए कलश भी थे । कनक कलश भरि कोपर धारा । भाजन ललितअनेक प्रकारा।
जलपूर्ण घट स्थापना  के पीछे रहस्य यह है कि यह पूर्णता का प्रतीक है। इसलिए शकुन या मंगलमय माना जाता है। इसे रखने के पीछे कार्य, अनुष्ठान, आराधना, विशेष के 'पूर्ण' और सफलीभूत होने की कामना है । यह साधक  की उस पवित्र कार्य को फलदायी बनाने की प्रबल इच्छा शक्ति का भी मूर्त रूप है। इसके अतिरिक्त जीव की उपमा घट सी दी गई है। परमात्मा 'घट-घट व्यापी'  कहा गया है।




                                                 'घट' साधक का शरीर है , कलेवर है, और उसमें भरा जल प्राण है, जीवन है। इसकी स्थापना करके अनुष्ठानकर्ता अपने को प्रभु चरणों में निवेदित करता है। घट वह है जो घटित हो चुका है, अर्थात सम्पूर्ण सृष्टिचक्र। रसमय (जलमय) घट स्थापन अनुष्ठानकर्ता द्वारा विराट के समक्ष यह प्रदर्शन है कि जब समग्र सृष्टि ही आपके चरणों में आसीन है तो मेरी क्या हस्ती । कलश को पौराणिक ग्रन्थों में ब्रह्ममा, विष्णु, महेश और मातृकावों का निवास बताया गया है।  कण्ठे रुब्रः समभिवतः । मूले तस्य स्थितो ब्रह्मा मध्ये मातृगणाः स्मृताः ।।

                                                  घट से ही पवित्रता की मूर्ति जग जननी सीता का आविभार्व हुआ और समुद्र को पी जाने वाले (जल पर पूर्ण अधिकार रखने वाले) अगस्त्य ऋषि भी कलशोत्पन्न है। क्यों न पूज्य हो कलश ः क्यों न स्थापित हो घट !  कवियों  की कोमल भावनाओं को भी उभारा है शुद्ध द्रवपूर्ण कुंभ ने । रीतिकालीन कवियों ने 'नीर भरी गगरी ढरकावै' कहकर लोकरंजन किया है। बाबू जयशंकर प्रसाद ने 'लहर' के प्रसिद्ध जागरण गीत बीती विभावरी जगरी में घट या गगरी को नहीं भुलाय।'  'लो यह लतिका भी भर लायी मधु-मुकुल नवल रस-गागरी '। पूज्य और अर्चनीय है भक्ति और श्रृंगार का संगम मंगल कलश, सुधाजल पूरित पवित्र घट।


                                                                                                                                          रघोत्तम शुक्ल

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                                      शुभ कर्म की प्रतीक गंगा


निष्काम कर्म  भारतीय दर्शन का मूल मंत्र है । बिना कर्म किये मनुष्य का  क्षण मात्र भी नहीं व्यतीत होता है, भले ही वह सुकर्म या विकर्म हो । सुकर्म यदि फल की आकांक्षा  रखकर किये जायं तो जीव उनसे बंधता है। लिप्त होना व्यक्ति को सकाम बनाता है। अफलाकांक्षी होकर कर्म में रत रहना योग है । वह स्वयं  में एक पुरस्कार अथवा आनंद है । गीता में कर्म आथवा स्वधर्म का पालन सदोष होनेपर भी करणीय बताया गया है। ' सहजं कर्म कौन्तेय सदोषमपि न त्यजेत्' और 'श्रेयान् स्वधर्मों विगुणः ' के भगवान कृष्ण के उपदेश जीव मात्र के लिये निर्देश वाक्य हैं । सम्पूर्ण महाभारत ही प्रतीक रूप में संसार -समर है। यह कुरुक्षेत्र में होता है । ' कुरु ' का अर्थ ही है  'करो'  । गोस्वामी तुलसीदास के शब्दों में सृष्टि कर्म प्रधान है और जो जैसा करता है वैसा फल भोगता है । कबीरदास भी 'करमगति टारै नाहिं टरी' कहकर कर्मवाद की श्रेष्ठता रेखांकित करते है । अतः विश्व में मानव मात्र के लिए फल की कामना न करते हुए पवित्र या सत् कर्म करते रहना श्रेयस्कर है, अभीष्ट है ।





 देव नदी गंगा का महत्व  वर्णनातीत है । ब्रह्मा के कमण्डल, विष्णु के चरण एवं शंकर जी के शीश से सम्बद्ध होने के कारण वे देवत्रयीसे संबंधित हैं, सगी हैं। वे स्वर्ग, भूमि और रसातल  तीनों लोकों में ' मंदाकिनी, भागीरथी औरह भोगवती ' बन कर विचरण  कर रही हैं । उनकी जलराशि का दर्शन मज्जन, पान, त्रिताप नष्ट कर देता है । वे जीवित से मृतक तक का उद्धार कर देती हैं । पुण्यात्माओं की पुण्य वृद्धि और पापियों के पापों का समूल नाश करती हैं ।

                           भूत भावन भगवान शंकर के नृत्य श्रम को देख राधा - माधव द्रवित हुए ।इसलिए ब्रह्मदेव को सृजनकर्ता विरंचि ने अपने कमण्डल में भर लिया, जो तीनों लोकों में अलग-अलग नामों से पुनीत नदियों के रूप में प्रवाहित हुआ । ब्रह्मा स्वयं सर्वोच्च तथा आदि श्रमिक हैं, जिन्होंने असंख्य प्राणी निर्मित किये । जीवों की उपमा  ' घट '  और विधाता की ' कुम्भकार'  या  ' कुम्हार '  से दी गई है। कवि मलिक मोहम्मद जायसी ने  तत्कालीन बादशाह से जो उनकी शक्ल देख कर हॅसा था , कहा कि ' मोहिका हॅसेसि कि कोहिरहि ' अर्थात् मुझपे हॅस रहे हो या उस कुम्हार को जिसने मुझे गढ़ा हैं।फिर इस महान कर्मी ब्रह्मा द्वारा एकत्रित शिव-नृत्य श्रमका परिणामी ब्रह्म-द्रव । यह तो शुचि कर्म किंवा श्रम वारि ही है ।
                            पृथ्वी  पर गंगा को  लाने का श्रेय राजा भगीरथ को है , जिन्हें अपने पूर्वज राजा  ' सगर '  की संतानों  की आत्माओं के उद्धार हेतु भूमि पर लाना आवश्यक था ।  सगर की ये संतानें कपिल मुनि द्वारा भस्म कर दी गई थीं। भूप भगीरथ ने तप कर के ब्रह्मा जी को प्रसन्न किया । ब्रह्मा जी ने कहा कि स्वर्ग से अवतरण होने पर गंगा का वेग इतना उत्कट होगा की पृथ्वी फोड़कर वे रसातल चली जायेंगी,यदि उनका वेग भूमि पर न रोका गया और यह क्षमता केवल भगवान शंकर में हैं। अतः पहले उन्हें  तप करके इस कार्य हेतु राजी करो । भगीरथ ने एेसा ही किया । भोलेनाथ प्रसन्न होकर गंगाजी को अपने सिर पर अवतरित करने हेतु राजी हो गये । उत्कट वेग से गंगा शिव जटाओं पर अवतरित हो पृथ्वी पर प्रवाहित हुई । आगे जह्नु राजा का यज्ञ मंण्डप था जिसे अपने अल्हड़ प्रवाह में वे बहा ले गयीं । जह्नु ने कुपित हो उन्हे पी लिया । तब देवताओं और ऋषियों की प्रार्थना पर जह्नु ने अपने कर्ण रन्ध्रों  से उन्हें छोड़ा और वे उनकी पुत्री या जाह्नवी कहलाईं।





                     धर्म और दर्शन में विश्व गुरु भारत की इस पवित्रतम नदी के वर्णनों में यदि आध्यात्मिकताओं के गहरे रंग रंजित किये जाए, तो यह स्वभाविक है, किन्तु इसके मूल में श्रम और शुचि कर्म के तन्तु प्रत्येक जगह स्पष्ट है । व्यवहारिक रूप से  गंगा ' गोमुख ' से निकलीं तथा उनकी पवित्र एवं अतिशाय उपयोगी जल राशि, भारतवर्ष में न आ पाती, यदि अद्भुत अभियंत्रण क्षमता वाले अन्यतम श्रमिक ( राजा) भगीरथ अपनी विशाल परियोजना द्वारा उसे यहां न लाते । उसे लाकर उन्होंने एक विस्तृत परिक्षेत्र को उपाजाऊ बनाया । पेयजल, यातायात सुविधा एंव अन्य अनेकानेक लाभ उपलब्ध कारये ।
                                   काव्य की लाक्षणिक भाषा में  भस्म या राख को भी मोक्ष या स्वर्ग प्रदान किया उद्धार किया । महाभारत वन पर्व अध्याय 109 श्लोक - 10 के अनुसार  नीचे गिरती हुई फेन पुंज से व्याप्त जलावती, समुद्र गामिनी, तीन धारओं में बहकर हंसो की पंक्ति की भांती सुशोभित होने लगीं । श्री भास्कर के सिद्धांत शिरोमणि के अनुसार विष्णुपदी विष्णु चरणों से गिरकर चार भागों में बंट गयीं । वाल्मीकि रामायण, बालकाण्ड, अध्याय 43 में उल्लेख है कि शिव के जटाजूट से अवमुक्त गंगा बिन्दु सरोवर से सात धाराओं में विभक्त हो गयीं । ह्लादिनी, पावनी और नलिनी  नामक धाराएं पूर्व  दिशा को चली गई। ' सुचक्षु',  ' सीता '  और 'महानदी सिंधु ' पश्चिम दिशा को प्रवाहित हुई । सातवीं धारा भागीरथ के  रथ के पीछे-पीछे चलनी लगी । (श्लोक 11 से 14 ) अर्थात त्रिदेवों का सहयोग - श्रम - जल भगीरथ के प्रचुर ताप, परिश्रम , सूझबूझ, अभियांत्रिकी और तकनीक के बलपर हा भारतवासियों को लाभान्वित कर सका ।



अड़चने पग-पग पर थी । विधाता को तप से प्रसन्न कर उन्हें भूमि पर भेजने हेतु राजामंद करना आवतरण हेतु शिव को तपस्या से राजी करना , जन्हु द्वारा समग्र पान कर लेने पर मुक्त करवाना, विखरती यत्र- तत्र जाती विभिन्न धाराओं में श्रेष्ठ जलधारा कुशलता और चातुर्य से स्वदेश लाना । वाल्मिकी ने भी गंगावतरण की पृष्टभूमि में प्रयत्न या कर्म की बात को स्वीकारा है । ' भगीरथोपि राजर्षिर्गग्ङामादाय यत्नतः ' । ( बालकाण्ड - 43 -40)  आचार्य विश्वनाथ प्रसाद मिश्र कहते है  कि भगीरथ प्रयत्न की विशेषता कर्म करने में थी , कर्म के आनन्द में थी । सृष्टी का प्रयोजन यही है कि कर्म करते आनन्द की अनुभूति करें, आनन्द के लिए कर्म करें ।     

                                                                                                                  रघोत्तम शुक्ल


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                                          पूजा और शंख ध्वनि  

 

पूजा, अर्चना काल में शंख ध्वनि किये जाने का शास्त्रों में विधान है । मंदिरों मंठो में शंख भगवान विष्णु बाराह व भगवती मां  सबके कर कमलों में धारणं किया जाता है । वैष्णव अपने इष्टदेव को शंख, चक्र, गदा, पद्मधारी ध्यान में देखते है । भगवती महाकाली भी शंख से सुशोभित है यथा -
                                              खड़ग चक्र गदेशु चाप परिधाञ्छूलं भुशुण्डि शिरः । 
                                              शंखं संदधतीं करेस्िज्ञनयनां सर्वांग भूषावृतां ।
समुद्र मंथन के उपरांत 14 रत्नों में शंख भी है।



                                              भगवान कृष्ण का पांचजन्ञ शंख प्रसिद्धी ही है, जिसके निदाद से कौरव रूपी नकारात्मक आसुरी शक्तियों की पांडव रूपी सात्विकी शक्तियों के हाथों पराजय हुई। युद्ध में शंख घोष दुष्टों के हृदय दहलाने वाला और सज्जनों की विजय का सूचक है, वाहक है। पूजा उपासना में शंखनाद दुर्वृत्तियों और विकारों पर सद्वृत्तियों और ईश्वर भक्ति की विजय का प्रतिक, परिवाहक है। भगवान विष्णु का लोक (बैकुण्ठ) दक्षिणावर्ती शंख के आकार वाला है।  काशी के मालाकार स्थूल शरीर को छोड़ ( सुरक्षित रखकर) सूक्ष्म देह से अन्य लोगों की यात्रा कर लेते थे। उन्होंने बैकुण्ठ को उपर्युक्त प्रकार से दक्षिणवर्ती शंख की आकृति वाला पाया।  अतः शंख ध्वनि उपासक को इष्टदेव में  भक्ति दृढ़ करने वाली स्मृति दिलाने वाली है । शंख बैकुण्ठ लोक का सूक्ष्म रूप है । असत् पर सत्  की विजय का प्रतीक है । 
           
                                                                                                          रघोत्तम शुक्ल


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                               वृद्धि का सूचक है स्वस्तिका

 

चिन्हों का एक तात्रिक और वैज्ञानिक महत्व होता है । स्वास्ित या कल्याण का प्रतिक स्वास्तिक चिन्ह है । इसे स्वास्तिक कहते है । दर्म कार्यो में स्वस्ित वचन आवश्य किया जाता है । तथा मंगल कलश और देव प्रतिभाओं पर स्वास्तिका बनाई जाती है। स्कन्द पुरण के उत्तराखंड के रामायण में नावाह्न श्रवण की महिमा  का वर्णन है कि पहले स्वस्ति वाचन करके फिर यह संकल्प करें  कि हम नौ दिन तक रामायण की अमृतमयी कथा सुनेंगे । भगवान श्रीराम जब विश्वामित्र के यज्ञ में रक्षार्थ जाने लगे तो उनके मंगल विधान हेतु माता-पिता और गुरु वशिष्ठ ने 'स्वास्तिवाचन' किया ।
                        कृत स्थ स्त्ययनं मात्रा पित्रा दशरथेन च । पुरोधासा वसिष्ठेन मंगलौरबिधांत्रियम्

( वाल्मीकि रामा/बाल काण्ड/सग22) मंगल ध्वनि निकालने वाला एक स्वस्तिक वाद्ययंत्र भी होता है। श्रीराम को भारत द्वारा राज्य वापस दिये जाने के अवसर पर स्वस्तिक बजाये जा रहे थे और मंगल गीत गाये जा रहे थे।  गीता के ग्यारहवें अध्याय में अर्जुन को भगवान श्री कृष्ण के विराट रूप के दर्शन हुए है।




                                                   21 वें श्लोक में अर्जुन देखते हुए कहते है ' हे गोविंद सब देवता आप में ही प्रवेश कर रहे है और कई हाथ जोड़े आप के गुणों का गान कर रहे  है,  महर्षि और सिद्धों के समुह कल्याण हों ( स्वस्ति) कहकर उत्म स्तोत्रों से आपकी स्तुति कर रहे है।ः-
परिलक्षित हो रहा है करते तब देह में देव समूह प्रवेश है।  उनमें कुछ हो भयभीत करें कर जोड़ गुणों का बखान विशेष है।  सब सिद्धि महाऋिष माधव आपका देख रहे  ये विचित्र सा वेष है। कह ' स्वस्ति' महानता का भवदीय रहे कर वे कलगान वृजेश है ।।' ( श्रीमदभगवतगीता के हिंदी पद्यानुवाद गीता दोहन 11 से)  इस प्रकार कल्याण और मंगल, जिसका सर्वत्र वर्णन भी है और आवश््यकता भी , चिन्ह रुप में स्वस्तिका का रूप ले लेता है। यह शुभ तो है ही वारण पुराण अध्याय 181 के अनुसार वृद्धि क भी सूचक है। काष्ठ प्रतिभाओं के निर्माण, पूजन की विधि बताते हुए उक्त अध्याय में भगवान की प्रतिमा पर स्वास्तिक बनाने की बात कही गयी है।




                                            हिटलर की ध्वजा पर उलटी स्वास्तिका बनी थी जो उसके ह्नवास और विनाश का  कारण बनी। शुभ और अशुभ चिन्हों का विशिष्ठ स्थानों पर बना होना अपना महत्व रखता है और उनके दर्शन मात्र का गहन वैज्ञानिक प्रभाव पड़ाता है।
                                                                     
                                                                                               रघोत्तम शुक्ल

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                             क्यों छोड़ते है काबा में कंकरिया


मुस्लिम बंधुओं  के विश्व प्रसिद्ध तीर्थ मक्का ( काबा) में तवाफ (परिक्रमा) और कंकरिया छोड़ने का विधान है सूफा और मर्वह पर्वतों के बीच भक्तगण दौड़ते है। कहते हैं सृष्टि के आदि में जब पृथ्वी जलमग्न थीं  तो सर्वप्रथम मक्का में ही भूमि के दर्शन हुए । यहां स्थित मस्जिद में काला प्रस्तरखण्ड रखा है जो शिव लिंग ही है। ' संगे असवद '  और शिव लिंग केवल सम्प्रदाय विशेष द्वारा दिये  गये महादेव ( ईश्वर) के नाम भेद है । यही कारण है कि हज के कार्यक्रम  में अक्षताओं की भांति कंकरिया छोड़ते है और मूर्तिपूजा के समर्थक ना होते हुए भी परिक्रमा करते है ।



                                         इतिहासकारों ने इस लिंग को मक्केश्वर सिव की संज्ञा दी है । प्रसिद्ध इतिहासकार कर्नल टाड ने भी इसे  शिवलिंग कहा है । हजरत इब्राहीम ने सफा और मर्वह पर्वतों पर दो बुत रखवाये ( शिवलिंगों की स्थापना की) थे क्योंकी उनकी पत्नी हजरत हाजिर जब अपने दूध पीते बच्चे इस्माइल के लिए अकेली वहां रेगिस्तान में जल की तलाश कर रहीं थी तो शीश गणधारी शिव की कृपा से  वहां एक सुन्दर जलाशय ( चश्मा) प्रकट हो गया, जिसे ' जम-जम' कहते है । बाद में मूर्ति पूजा का विरोध होने के कारण बुत (शिवलिंग) तो हटा दिये गये, किन्तु  हजरत मुहम्द साहब के निर्देशानुसार परिक्रमा अब भी होते है । बताया जाता है कि जमजम में शिवलिंग अभी विराजमान है ।



                                      इस प्रकार काबा तीर्थ  में कंकरियां फेंकना और परिक्रमा करना शिवार्चना का विधान है । भारतवर्ष की भोगोलिक सीमाएं और धार्मिक मान्यताएं अतीत में बहुत विस्तृत थीं । ईरान में हुफरात तट पर सूर्य मंदिर में मिलने वाली वंशालियों में श्रीराम का नाम आता है । महाभारत के सभापर्व के अनुसार अर्जुन ने प्राग्ज्योतिषपुर (अासाम) के राजा मगदत्त को  जीता था, जिसके राज्य में चीन भी था( भारतीय पुराणों में वर्णित मुक्तिनाथ शालग्राम क्षेत्र) और शिव विषपान स्थल ( पशुपतिनाथ) अब नेपाल में हैं ।

                                                                                                                    रघोत्तम शुक्ल
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                              धर्म कार्य में क्यों लीपते हैं भूमि

 

पूजन, हवन, श्राद्ध  और मरणासन्न प्राणी के लिटाने हेतु भी भूमि को गोबर से लीपने का विधान है । गाय के गोबर से घरो में उपलेपन  का विशेष महत्व है । इससे भूमि- शुद्धि होती है ।  यों तो जो पृथ्वी स्वयं वराह भगवान उद्धार करके लाये तथा  जिसका प्रक्षालन जाह्नवी करती है, सर्वत्र शुद्ध है, किन्तु  इन्द्र  को वज्र से वृत्तासुर नामक राक्षस जो ब्राह्मण था, कि हत्या से जो रक्त भूमि पर गिरा उससे वह अशुद्ध हुई और धर्म- कर्म में गोमय से उपलेपन  करके शुद्धिकरण  का विधान है । वराह पुराण के अध्याय 118 में उल्लेख है कि भगवान पृथ्वी  से कहते है जितनी बूंदे गोबर की  पृथ्वी पर (लीपने या पूजन कार्य में चौका लगानेे से) गिरती है, उतने हजार वर्षो तक श्रद्धालु पुरुष स्वर्ग में प्रतिष्ठा पाता है । गरुड़ पुराण के अध्याय 9 में कहा गया है कि ब्रह्मा, विष्णु, रुद्र समस्त देवता तथा अग्नि से सब मण्ल (चौका)  पर ही बैठते है तथा भूत, प्रेत, पिशाच  यमदूत बिना लिए स्थान में प्रवेश कर जाते है ।  गोमय  से लिपी भूमि पर वे नहीं प्रविष्ट हो पाते है ।



ब्रह्मा, विष्णुश्च रुद्रश्च सर्वे देवा हुताशनः ।
मणडलोपरि तिष्ठन्ति तस्मात्कुर्षीत मण्डलम् ।।
राक्षसाश्च, पिशाचश्च, भूता, प्रेता यमानुगः ।
अलिप्त देशे खट्वायामन्तरिक्षे विशन्ति च ।।

( गरुड़ पुराण अ. 8 / श्लोक 17/19)
गोमय में  कीटाणु नाशक  गुण होता है तथा धूलिकण भी बैठ जाते है । अतः अध्यात्मिक और भौतिक वैज्ञानिक कार्यों  से भूमि के गोमय से उपलेपन की परम्परा उपयोगी है ।

                                                                                                                  रघोत्तम शुक्ल

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                                    पूजा और दूरवादल

हिन्दू उपासना पद्धति में पूजन सामग्री में दूर्वा या दूब का भी अपना स्थान है।  अन्य सामग्रियों  के साथ हरी दूब भी धोकर थाल में सजाकर पूजन के लिए रखी जाती है। भगवान श्री राम विवाह करके अयोध्या लौटे  तो माताओं ने परछन के लिए जो वस्तुएं रखी  उनमें दूब भी थी -
                                                     हरद दूब  दधि, पल्वल फूला
                                                     पान पनफल मंगल मूला !!

इसी तरह जब श्री राम रावण के वध के उपरान्त नगर को वापस आये तो उनके स्वागत आरती हेतु जो मांगलीग वस्तुए सजायी गयीं उनमें भी दूर्वा विराजमान थी-
                                     दधि दूर्वा रोचन फल फूला ।
                                     नव तुलसीदल मंगल मूला !! ( मानस / उत्तरकाण्ड)




पूजा स्वागत और शकुन की वस्तु कैसे है दूब

भारतीय दर्शन बहुत गंभीर और सारगर्भित है। शोपेनहर ने कहा है कि उपनिषद उच्चतम बुद्धी की उपज है ।घास देखने में नितांत उपेक्षित और अर्किचन है। पैरों के निचे कुचली जाती है। कबीर के शब्दों में ' ज्यों पाउं ललि घास कितनी दीन है ? किन्तु  हमारा धर्म एेसा है कि इस घास को पवित्र और मंगलमय मानकर देवों के शीष पर चढ़ाता है। घास यहां स्वागत और पूजा की थाल की शोभा है, श्मशान की भस्म यहां के महादेव का अंगराग ! 'दूब' इसलिए भी पूजा का उपकरण बनती है कि  बिना किये सर्व सुलभ है हमारा भगवान यदि एेसी चीजें ले प्रसन्न होता जो दुर्गम और अधिक मुल्यवान है तो दीन हीन निर्धन अर्चना से वंचित रहते।
ईश्वर पर धनिकों का एकाधिकार होता 'दूब' विनम्र है। कुचली जाने पर भी हरी भरी बनी रहती है। झुक जाती है अतः उसकी विनम्रता, साधुता की परिचायक है और उसे प्रभु तक पहुंचाती है।  पूजा में घास हमारे इस शाश्वत सिद्धांत की भी पुष्टिकारक है कि सब कुछ ईश्वरमय है।




                                                   श्रृति कहती है - ' सर्व खाल्विदं ब्रह्ममां ' तब भला कौन तुच्छ और कौन महान?
 वारह पुराण में राजा दूजय भागवान से कहते है ' हे विष्णु, पेड़-पौधे, वन सम्पत्तिायं सब आपका ही रूप है।
त्वत्तो वृक्षावीरुधश्य् त्वतः सरवानौषधिः ।(व.ह.अ.११) दूर्वा भूमि से उत्पन्न सीता मां की बहिन है। धन्य है अपनी पावन भारत भूमि ।(दर्शन हो या धर्म) अद्यात्मवेत्ता हों या कवि अर्किचनों को सम्मान देना नहीं भूलते । कवि 'अज्ञेय' ने भी हरी घास पर 'क्षणभर' नामक काव्य रचना लिखकर दूब को सम्मान दिया है


                                                                                                                 ▪  रघोत्तम शुक्ल

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                                  मांगलिक होते हैं अक्षत


अर्चना हो या मूर्ति में प्राण प्रतिष्ठा भगवान को भोग होया मंगल थाल की सज्जा, मंत्रोपासना हो या श्राद्ध पिण्ड की तैयारी, अक्षत या चावल प्रत्येक जगह आवश्यक है । श्रीराम की बारात के स्वागत  में दाल, भात और गाय का धी बारातियों को परोसा गया था । गोस्वामी तुलसीदास  ने रामचरित मानस में उल्लेख किया है ः
                 सूपदो ना सुरबी सरयि, सुन्दर स्वादुपुनीत ।
                 छन मुंह सब कहं परसिगे चतुर सुआर विनीत ।।

इसी तरह जब बारात वापस अयोध्या आ गयीं तो श्रीराम के स्वागत में मातोओं ने जो मंगल थाल सजाये उनमें भी अक्षत विद्यमान थेः
                अच्छत अंकुर लोचन लाजा ।
                मंजुल मंजरि तुलसि विराजा ।। ( मानस  बालकाण्ड)

भगवती दुर्गा का भक्त मां की मानस पूजा करता हुआ, उन्हें नाना प्रकार की सामग्रिया अर्पित करता है । मां के भोजन हेतु वह सुंदर अगहनी चावल का निर्मल सुगंधित बात रखता है ।
                         ' जाती सौरभ निर्भर रुचिकर शाल्योदनं निर्मल । 
                          युक्त हिडंगुमरीचजीर सुरभि द्रव्यान्वितैव्यज्जैनै ः '  ।



                                             हवन और पिण्ड दान में  चावल आवश्यक है, कन्या के विवाह में भी दान खील आदि प्रयुक्त होते है। भगवान का प्रिय भोग है धान ! वराह पुराण के अध्याय 119 में भगवान पृत्वी से कहते है माधवि ! लाल धान का चावल मुझे प्रिया है । आमोदा शिव  सुन्दरी शिरीष और आकुल सज्ञक धान के चावल  मेरे लिए उपयुक्त है ।  प्रभु को अक्षत अर्पित करते समय यह मात्र पढ़ना चाहिए ।
                         मया निवेदिता भक्त्यागृहाण परमेश्वर ! 




                                                           सुदामा ने श्रीकृष्ण को चावल के टूटे अंश ही भेंट किया थे, जिससे सुदामा विपुल संपदा के स्वामी बने । तंदुल का झोका भरतेहुए लक्ष्मी घबरा उठी, कुबेर ( खजाना  खाली होने का भय से) चौक उठे और रुक्मिणी जी प्रतिरोध कर उठी। मेरु डरयो बकसै जानि मोही कुबेर चबावत चुनार चौकों ( सुदामा चरित्र- नरोत्मदास)   

                                                                                                                 ▪  रघोत्तम शुक्ल

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                                  विकास का प्रतीक लावा


लावा (लाजा) अथवा खील मांगलिक  अवसरों पर प्रयोग किया जाता है । यह पूजा के थाल की शोभा है । प्रगति और समृद्धि की कामना के अनुष्ठानों में खील रखी जाती है । दीपावली के अवसर पर लक्ष्मी पूजन की यह आवश्यक सामग्री है । चावल से बनायी जाने वाली खील जैसे स्वयं विकसित हो जाती है उसी प्रकार यह साधक की अभीटि्सत वृद्धि करती है । भगवान की बारात अयोध्या आने पर माताओं ने 'परछन' के लिए जो थाल सजाये उनमें विविध शकुन वाले पदार्थों में 'लावा'  भी विराजमान था ः

अच्छत अंकुर लोचन लाजा ।
मंजुल मंजरि तुलसि वाराजा ।
छुहे पुरट घट सहज सुहाए ।
सदन सकुन जनु नीड़ बनाए ।।




लावा की उपस्थिति श्रीराम के वैवाहिक जीवन के विकास की प्रतीक तथा कामना करने वाली थी ।
" गरुण पुराण " में मृतक कर्म के वर्णन में उल्लेख है कि प्राणी की मृत्यु के नवें दिन मृतक के स्वर्गकामना के लिए सब कुटुम्बियों का लैलाभ्यंग करना चाहिए, फिर बाहर स्नान करके दूब और लावा लेकर स्ज्ञी को आगे करके मृतक स्थान पर जावे और कहे  कि दूब के समान तुम्हबारे कल की वृद्धि हो और लावों के समान कुल का विकास हो, एेसा  कहकर दूब और खील उस स्थान पर छोड़ देवें यथाः -
                                   वहि ः स्नात्वा गृहीत्वा च दूर्वालाज समन्विताः । अग्रतः प्रमदां कृत्वा समागच्छेन्मृतालयम ।। दूर्वातत्कुल वृद्धिस्ते लाजादूर्वा  विकासिता । एवमुक्त्वा त्यजेद्गेहे लाजान्दूर्नासमन्वितान् ।।
विवाह काल में भी खीलों का प्रयोग होता है ।

                                                                                                        ▪  रघोत्तम शुक्ल

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