गणेश वन्दना
गज के सम मंजु मुखाकृति मोदक भोग सदा जिनके मन भाता । जिनका कुछ आदि न अन्त लिये शुभ नाम अमंगल पास न आता । सुर वन्दित,बुद्धि निधान,दुलार किया करतीं जिनका गिरि जाता। उन विघ्न विमोचन का कर ध्यान त्रिलोचन के अब मैं गुन गाता ।
वाणी वन्दना
भाषा,भव्य भाव और भूषण सुमंजु ले के , भारती! हमारे छंद छंद को संवार दे । ज्ञानमयी ! प्रतिभा प्रभा का कर के प्रसार, बुद्धि का हमारी कर दूर अंधकार दे ! प्रणत हुआ हूं अम्ब ,तेरे पद पंकजों में,अन्तर-कुभावना को कर क्षार-क्षार दे ! शारदे! उबार दे निहार दे दया से मुझे उर का हमारे झनकार तार तार दे ।
शिव स्तवन
1
जिनके सघन जटावन से , हो रही प्रवाहित सुरसरि धारा। परम कराल भुजंग माल से , रुचिर कण्ठ सब भांति संवारा । जिनके डम डम डमरू रव से,गुंजित हुवा विश्व है सारा । हे ताण्डव अनुरक्त ! भक्त भय हरण ! करो कल्याण हमारा ।
2
जह्नुसुता की चपल तरंगें, विचलित जटा जाल से फंसकर । अति विकराल भाल पर जिनके , काल-ज्वाल जलती धक धक कर । बालइन्दु कृतकृत्य हुआ है,शिव ललाट को शोभा देकर । है प्रणाम कर बद्ध कामरिपु ! कोटि बार तुमको विधु –शेखर !
3
बैठ किसी एकान्त कुंज में , पावन जह्नुसुता के तटपर। युगल नेत्र से भक्ति भाव वश , प्रेम वारि बहता हो झर झर । निर्मल मन , दुर्बुद्धि विगत अब , हो प्रतीत सब शान्त चराचर । हे प्रभु दो वरदान कि अविरल , जपूं नाम हे शिव हे हर हर ।
4
सर पर बहत अमल जल गल मँह करत फनन फन सतत गरल धर । तन पर भसम लसत हरपल, हर करत रहत डम डम मरघट पर कटत सकल अघ तरत अधम सब,भजन करत जब मदन दहन कर । जय त्रय नयन ! भगत वतसल भय हरन,अमर,अज,जय जय हर हर ।
5
शीश जटाजाल औ गले में पड़ी मुण्डमाल, योगिनी,पिशाच,भूत,प्रेत लिये साथ हैं । खाये हैं कराल कालकूट औ लगाये भस्म,बाल इन्दु रहत रमाये नित्य माथ हैं । वसन दिशायें व्योम असन धतूरा आक, शंकर भयंकर त्रिशूल लिये हाथ हैं । त्रिभुवन त्राता सुर सन्त सुखदाता,मेरे माता,पिता,स्वजन,सुभ्राता भूतनाथ हैं ।
6
अंग अंग गौर ,गौरी मातु बाम सोह रहीं , शीश पै प्रवाहित पवित्र गंग धार है । पी के भंग करते हैं भव भव-ताप भंग,नंग हैं अनंग को बनाया क्षार क्षार है । देह में रमाये सदा रहते मसान भस्म,कण्ठ में सुशोभित कराल व्याल हार हैं । मैन-मान-हारी , तीन नैन त्रिपुरारी,उन अर्धचन्द्रधारी को प्रणाम बार बार है ।
7
धधक रही है काल ज्वाल भाल पट्टी बीच,विषम विषैले कण्ठ मध्य पड़े व्याल हैं । गरल गले में अर्ध चन्द्रमा ललाट बसा, साथ में पिशाच,प्रेम,भूत विकराल हैं । नग्न रहते हैं सदा करते त्रिताप भग्न , मग्न पिये भंग लिये डमरू विशाल हैं । मरघट वासी , तेजराशि,अविनाशी शम्भु, मेरे मन मानस के मंजुल मराल हैं ।
गज के सम मंजु मुखाकृति मोदक भोग सदा जिनके मन भाता । जिनका कुछ आदि न अन्त लिये शुभ नाम अमंगल पास न आता । सुर वन्दित,बुद्धि निधान,दुलार किया करतीं जिनका गिरि जाता। उन विघ्न विमोचन का कर ध्यान त्रिलोचन के अब मैं गुन गाता ।
वाणी वन्दना
भाषा,भव्य भाव और भूषण सुमंजु ले के , भारती! हमारे छंद छंद को संवार दे । ज्ञानमयी ! प्रतिभा प्रभा का कर के प्रसार, बुद्धि का हमारी कर दूर अंधकार दे ! प्रणत हुआ हूं अम्ब ,तेरे पद पंकजों में,अन्तर-कुभावना को कर क्षार-क्षार दे ! शारदे! उबार दे निहार दे दया से मुझे उर का हमारे झनकार तार तार दे ।
शिव स्तवन
1
जिनके सघन जटावन से , हो रही प्रवाहित सुरसरि धारा। परम कराल भुजंग माल से , रुचिर कण्ठ सब भांति संवारा । जिनके डम डम डमरू रव से,गुंजित हुवा विश्व है सारा । हे ताण्डव अनुरक्त ! भक्त भय हरण ! करो कल्याण हमारा ।
2
जह्नुसुता की चपल तरंगें, विचलित जटा जाल से फंसकर । अति विकराल भाल पर जिनके , काल-ज्वाल जलती धक धक कर । बालइन्दु कृतकृत्य हुआ है,शिव ललाट को शोभा देकर । है प्रणाम कर बद्ध कामरिपु ! कोटि बार तुमको विधु –शेखर !
3
बैठ किसी एकान्त कुंज में , पावन जह्नुसुता के तटपर। युगल नेत्र से भक्ति भाव वश , प्रेम वारि बहता हो झर झर । निर्मल मन , दुर्बुद्धि विगत अब , हो प्रतीत सब शान्त चराचर । हे प्रभु दो वरदान कि अविरल , जपूं नाम हे शिव हे हर हर ।
4
सर पर बहत अमल जल गल मँह करत फनन फन सतत गरल धर । तन पर भसम लसत हरपल, हर करत रहत डम डम मरघट पर कटत सकल अघ तरत अधम सब,भजन करत जब मदन दहन कर । जय त्रय नयन ! भगत वतसल भय हरन,अमर,अज,जय जय हर हर ।
5
शीश जटाजाल औ गले में पड़ी मुण्डमाल, योगिनी,पिशाच,भूत,प्रेत लिये साथ हैं । खाये हैं कराल कालकूट औ लगाये भस्म,बाल इन्दु रहत रमाये नित्य माथ हैं । वसन दिशायें व्योम असन धतूरा आक, शंकर भयंकर त्रिशूल लिये हाथ हैं । त्रिभुवन त्राता सुर सन्त सुखदाता,मेरे माता,पिता,स्वजन,सुभ्राता भूतनाथ हैं ।
श्री केदारनाथ जी |
6
अंग अंग गौर ,गौरी मातु बाम सोह रहीं , शीश पै प्रवाहित पवित्र गंग धार है । पी के भंग करते हैं भव भव-ताप भंग,नंग हैं अनंग को बनाया क्षार क्षार है । देह में रमाये सदा रहते मसान भस्म,कण्ठ में सुशोभित कराल व्याल हार हैं । मैन-मान-हारी , तीन नैन त्रिपुरारी,उन अर्धचन्द्रधारी को प्रणाम बार बार है ।
श्री केदारनाथ जी |
7
धधक रही है काल ज्वाल भाल पट्टी बीच,विषम विषैले कण्ठ मध्य पड़े व्याल हैं । गरल गले में अर्ध चन्द्रमा ललाट बसा, साथ में पिशाच,प्रेम,भूत विकराल हैं । नग्न रहते हैं सदा करते त्रिताप भग्न , मग्न पिये भंग लिये डमरू विशाल हैं । मरघट वासी , तेजराशि,अविनाशी शम्भु, मेरे मन मानस के मंजुल मराल हैं ।
श्री सोमनाथ जी |
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