साधक के लिए कुण्डलिनी और उसका जागरण सदा से जिज्ञासा का विषय रहा है । यह
'शक्ति' और सर्वोच्च वैश्विक ऊर्जा है ,जिसे 'शिवसूत्र' में परब्रह्म की 'इच्छा
शक्ति उमा कुमारी ' कहा गया है । जापान में इसे 'की' चीन में 'ची'तथा इसाई धर्म
ग्रन्थों में 'होली स्पिरिट' कहा गया है । शरीर में 72000 नाड़ियां होती हैं
। इनमें इड़ा , पिंगला और सुषुम्ना, प्रधान हैं । ये मेरुदंड या रीढ़ के बीच
में स्थित होकर संपूर्ण नाड़ी तंत्र एवं तन को नियंत्रित करती हैं । इसी के
नीचे 'मूलाधार चक्र' में तीन इंच लंबी कुण्डलिनी चक्र रूप अर्थात कुण्डली मारे
स्थित रहती है । सुषुम्ना के अंदर भी 'चित्रिणी' नामक एक नाड़ी है । कुण्डलिनी
जागृत होने पर इसी चित्रिणी के अंदर से सीधी होकर ऊपर को जाकर 'सहस्रार या
शिवस्थान'पर पहुंचती है । इन सबकी स्थिति इतनी सूक्ष्म है कि विज्ञान या
चिकित्सा शास्त्र से दर्शनीय या ग्रहणीय नहीं है । साढ़े तीन चक्र मारे बैठी
कुण्डलिनी जागरण के विविध उपाय हैं - यथा उत्कट भक्ति , यौगिक क्रियाएं , मंत्रजप ,
गुरु द्वारा शक्तिपात और कभी-कभी पूर्व जन्मों की संसिद्धि के आधार पर
'अकस्मात' । जागृत होने पर तत्काल पूर्व कर्मों के प्रभाव बाहर आ जाते हैं तथा
व्यक्ति विक्षिप्तों जैसा आचरण करने लगता है । योग्य गुरू की सहायता बिना
कुण्डलिनी जागरण खतरनाक सिद्ध हो सकता है । प्रारंभ में तन्द्रा सी अनुभूत होती
है और नदी,देवता,साधु,संत,अंत:दृश्य में आते हैं । वह स्वप्नावस्था नहीं होती
है । वह जागृत होकर उपरिगामी होती है और सुषु्म्ना के छहों चक्रों -
मूलाधार,स्वाधिष्मान, मणिपूर ,अनाहत ,विशुद्ध और आज्ञा का भेदन करती है । आज्ञा
'चक्र'दोनो भौहों के बीच का स्थान है जिसे 'त्रिपुटी' भी कहते हैं । तदनन्तर
'नाद'और'बिन्दु'उसका गन्तव्य है । बिन्दु सहस्त्रों ग्रन्थियों वाला सहस्त्रार
है जहां त्रिकोण में 'परमशिव'विराजमान हैं । वहां कुण्डलिनी के पहुंचने पर
सहस्त्रों सूर्यों का शीतल नीला प्रकाश दर्शित होता है । साधक परमानन्द में डूब
जाता है । गूंगे का गुड़ है । कबीर कहते हैं - 'उनमनि चढ़ा मगन रस पीवै'।
'हंस', 'सोहं' , 'हूं क्षूं' के उच्चारण तथा खड़े होकर अपनी एड़ियों से मूलाधार
पर हल्के प्रहार भी कुण्डलिनी जागरण में सहायक होते हैं । मानव मात्र के लिए
किसी भी लौकिक सुख से ऊपर ब्रह्मानंद होता है ,जो उसे कुण्डलिनी जागरण से
प्राप्त होता है, तब वो पूर्णकाम और धन्य हो जाता है । ऐसा आत्मज्ञानी व्यक्ति
जीवन मुक्त होकर ब्रह्म से तादात्म्य करता है और वसंत ऋतु के समान लोकहित करता
हुआ दूसरों को भी तारता रहता है ।
(यह आलेख दैनिक जागरण में दिनांक 17 मार्च को प्रकाशित हुआ ।)
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