Thursday, 19 March 2015

शिव संदेश


 अध्याय -1- आराधन 
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 अंग अद्रि-बाल,शीश जह्नुजा लसै,तथापि, 
 विश्व में प्रसिद्ध योगिवृन्द में प्रवर हैं। 
आप हैं पुरान,यान हेतु वृद्ध बैल;किन्तु- 
 वास हेतु खोज लिये शैल के शिखर हैं।। 
नाम वामदेव,काम दाहिने समस्त,शम्भु- 
 दानवीर हैं परन्तु लोक कहे 'हर' हैं। 
'शुक्ल'के प्रणम्य चन्द्रशीश हैं,गिरीश जो कि, 
 अर्द्ध अंग नारि और अर्द्ध अंग नर हैं।। 1।। 


 कण हूॅ पवित्र विश्वरूप विश्वनाथ का व,
 शर्व महाकाव्य का पुनीत उद्धरण हूॅ। 
करता सदैव 'शुक्ल'शुद्ध आचरण;नीति - 
 न्याय,धर्म,ईश-भक्ति को किये वरण हूॅ।। 
दुष्ट ग्रहगण ! अब कीजिये दुसाहस न, 
 ग्रहण किये मैं चन्द्रचूड़ के चरण हूॅ। 
पूर्व जन्म,वर्तमान के विकर्म, भाग्य अंक! 
 क्रूरकाल! सावधान!शम्भु की शरण हूॅ।।2।।




एक ओर मोर यान स्कन्द का विराजमान,
 अन्य ओर व्याल फनकार फन फन है। 
गरल, पियूष कुण्ड,भूतगन,देवजन, 
 अर्क औ धतूर,मृत्यघाट राख धन है।। 
मूस पीठ पर गजमुख है सवार देखो, 
 एक थान पर बैल,सिंह गरजन है। 
परम विचित्र वस्तु संग्रह-सदन याकि, 
 भक्त मन मोहक भवेश का भवन है     ।।3।। 






 पुष्प,पत्र,वारि से प्रसन्न हों पुरारि 'शुक्ल', 
 आशुतोष के समान देवता न अन्य हैं। 
नाम मात्र से कटें त्रिताप भक्त पाप कृत्स्न, 
 रोष में समस्त दग्ध दोष कर्म जन्य हैं।। 
पोष्य अन्तकेश से दुखी व दास हैं अनन्य, 
 मन्यता भरे असंत दुष्ट वृन्द हन्य हैं। 
धन्य शूल हाथ,धन्य शैलबाल साथ,धन्य-
अर्द्ध चन्द्र माथ,विश्वनाथ धन्य धन्य हैं  ।।4।।


आप पुण्य रूप,कर्म,ज्ञान,भक्ति हीन'शुक्ल'
 दीन हूॅ प्रसिद्ध विश्व पातकी महान हूॅ। 
दान, ध्यान,वेद औ पुरान में अजान,यज्ञ, 
 तंत्र,मंत्र आदि से सुविज्ञ भी अहा न हूॅ।। 

युक्त हूॅ अकार से,उकार से,मकार से न, 
 कौन से विकार के प्रवाह में बहा न हूॅ। 
मेट दीजिये तथापि भाग्य का कुलेख,क्योंकि, 
 अंघ्रि धूल का त्वदीय शम्भु!लेलिहान हूॅ।।5।। 






 भूति भस्म,भस्म काम,अंधकारि वारि शीश,
 पद्मजात विष्णु भी न जानते प्रताप हैं। 
पञ्च उत्तमांग के सितांग हैं कपूर तुल्य, 
 विश्वनाथ के विचित्र से कृया कलाप हैं।। 

माम हैं, न धाम,दामहीन,व्यालदाम,वाम- 
 देव,कामशत्रु,मेटते समस्त ताप हैं।
 पाणिचाप,चित्त में अमाप है कृपा,मदीय, 
 सर्वदाऽवलम्ब साम्ब चन्द्रचूड़ आप हैं।।6।। 

 मेटता ललाट का कुलेख,व्यालराट कण्ठ, 
 आदि अंत हीन,कभी वृद्धि है न क्षति है। 
भावसाध्य,बाध्य भक्त त्राण हेतु,धर्मसेतु, 
 देववृन्द का अराध्य,संत अंतगति है।।

 यान-गो,यमेश,योगयुक्त,यामअष्ट पूज्य,
 यातमान सेव्य, यज्ञरूप,यह्व,यति है। 
शुद्ध,शुभ्र,शान्त,शूल शस्त्र,श्रेय,शीश-इन्दु,
 'शुक्ल'का शुभेच्छ,शर्व,शैलसुता पति है।।7।।






ले रहा न नाम रूपी रतन अतन रिपु, 

 मन में मदन भव- भूति निज धन है। 
कीजिये क्षमा न ध्यान लाइये मदीय भूल, 
 दास पै अहेतुकी कृपा त्वदीय पन है।। 
कर्म-बन्ध,भाग्य का कुलेख,हस्तरेख किये- 
 त्रस्त हैं,न जानते कि विश्वनाथ जन है। 
सृष्टिजाल में फॅसा,धॅसा ममत्व गर्त मध्य, 
 सतत सकाम हूॅ,अकाम को नमन है।।8।।



 मेटते अनिष्ट,इष्ट अद्रि-बाल के,मदीय- 
 शीश आभरण,'शुक्ल'चित्त आहरण हैं।
 क्षरण करें जो कर्म कुफल,हरें विपत्ति, 
 मोह संवरण,सृष्टि सिंधु संतरण हैं।।
 देववृन्द पायक,प्रदायक विमुक्ति के जो, 
 देखते कभी न पाप,पुण्य विवरण हैं।
 पाथजात तुल्य रम्य,गाथ है अगम्य,मम, 
 ध्यान में सदैव चन्द्रचूड़ के चरण हैं।।9।।





अष्टमूर्ति रूप रम्य चित्त में बसा मदीय,
 कष्ट काल में सदा स्मरामि क्लेशहं हरम्। 
लोक पाश में बॅधे सुनो असंख्य लोग 'शुक्ल'
 लो परेश नाम पूत तीर्ण सृष्टि नश्वरम्।। 
दीन की पुकार आशु आपने सुनी दयालु, 
 पूर्णकाम! सद्य पूर्ण कामना हुई परम्। 
धन्य हैं भवेश आप,आप तुल्य हैं;अहं, 
 नमामि चन्द्रशेखरं,नमामि चन्द्रशेखरम्।।10।। 


 विश्व वन्द्य अहह अहेतुकी कृपालु, बन्द- 
 ज्ञान चक्षु खोल दिये 'शुक्ल'से अधम के। 
शोभित मसान मध्य,नृत्य में सतत रत, 
 संग संग शब्द घनघोर डम डम के ।। 
मूर्तिमान ज्ञान,यान मुक्ति पंथ के, 
अमान- ध्यान किया जिसने उसी के भाग्य चमके।
 काम क्रोध तम के विदारक तमारि सम, 
 चरण मनोज्ञ अद्रिबाल प्रियतम के।।11 ।। 




 धरते न चित्त में भवेश भक्त भूल कभी, 
 नाम लिये पातक समस्त हर हरते। 
ध्यान करे 'शुक्ल'भूति भूषित सुदेह का जो, 
 तस्य गेह भूति से स-नेह भव भरते।।
 अंतकाल लेकर पवित्र विश्वनाथ नाम, 
 वामदेव दास भवजाल से उबरते।।
 रहता न क्लेश लेश,सम्पदा अशेष मिले, 
 रञ्च मात्र जिसपै महेश कृपा करते।।12।।




भक्त मन मीन को अथाह अम्बु राशि तुल्य, 
 'शुक्ल'चित्त चातक पवित्र बूॅद स्वाति के। 
सर्व त्यक्त, परम अशक्त,खर्व दास हेतु, 
 सुलभ बनाते विश्व भोग भाॅति भाॅति के।। 
ध्यान से मनाक नाक ईश बन जाते म्लेच्छ, 
 पातकी,पुलिन्द,हूॅण,शूद्र निम्न जाति के।। 
सिद्धि के सदन,षट वदन,गणेश वन्द्य, 
 संसृति कदन,पद मदन अराति के।।13।।


 नगराज बालिका विराजती सु-वाम अंग, 
 नग पर धाम किन्तु रहता नगन है। 
ज्ञान का स्वरूप किन्तु रहता आजान तुल्य,
 षट भगवंत किन्तु भोगता भग न है।। 
योग नीद रत है सजग जग तस्य रूप, 
 जगत निवास किन्तु मन में जग न है। 
उसके हैं ध्यान में मगन 'शुक्ल'-चित नित, 
 और वह भक्त हित ध्यान में मगन है।।14।। 




 भानुमंत,माथ में सुशोभित मयंक नित्य, 
 मंगल प्रदायक प्रणाम!त्रिनयन है। 
बुध जन वंद्य,विश्व गुरु,शुक्र सा महान् - 
 कवि;करता त्रिताप नाश निवसन है।।
 धूमकेतु भाल मध्य,स्थाणु है सतत ध्रुव, 
 नाम से सदैव दूर भागता अतन है। 
चौदहों अनन्त, द्वीप सप्त, ऋषि,मुनि पूज्य, 
 देखिये महेश में खगोल का सृजन है।।15।।




केश गंग पूत,कृष्ण व्याल कण्ठ ,काशिराज, 
 परम विचित्र वीर्यवान पञ्चशिर है।
 भाल में धनञ्जय,स्व-भक्त टेर भूरिश्रवा, 
 पाञ्चजन्य दोष अंधकार को मिहिर है।। 
नमित सुरेश सहदेव शकुनी महान्,
 'शुक्ल'शिखण्डीय देह,धीर युधिष्ठिर है।
 धर्मराज,ईश,भीमविग्रह,विराट देखो, 
 शैव्य वन्दना कि कुरुक्षेत्र का शिविर है।।16।।



 औषधीश नाम विश्व रोग हेतु रामवाण,
 ध्यान भक्तवृन्द के त्रिदोष का निदान है। 
दूज का मृगाङ्क माथ,भोग से विरक्त,चाप, 
 शूलपाणि,जीव जीवनी जड़ी समान है।। 
मेटता अरिष्ट,दुष्ट वर्ग गर्व चूर्ण पूर्ण, 
वर्ण स्वच्छ स्वर्ण भस्म अंग भंग पान है।
है सुदर्श नागहार का सदा ज्वरान्तकार, 
मार शत्रु वन्दना कि वैद्य की दुकान है।।17।।





 चित्त के प्रदेश में महेश मूर्ति मञ्जु बनी, 
 भाव पुष्प कविता मदीय अद्रिबाला है।
 नन्दित सदैव हूॅ विराजमान नन्दीगण, 
 कुण्डलिनी शम्भु कम्बु कण्ठ सर्प काला है।। 
विन्दुथान का सहस्र पत्र पद्म छत्र तुल्य, 
 गुम्बज सु-शीश,केतु कीर्ति का निराला है। 
ज्ञान ज्योति आरती,मुखारविन्द द्वार अहो,
'शुक्ल'का शरीर ज्ञात हो रहा शिवाला है।।18।।


शरद निशाकर सम शुभ शीतल,
 शमन त्रिताप,शीश गंगाधर। 
सरल स्वभाव,तरल अति हीतल, 
 गुणातीत शिव शिर दोषाकर।।
 सगुण, सतत रत दान,मदन रिपु, 
 नारायण प्रिय,जयति उमावर। 
वरद,विनीत,अमर,दिति देवर, 
विश्वम्भर,शंकर,हे हर हर ।।19।। 


शंकर,शशांकशीश,शम्भु,शिव,शूलपाणि,
शशिशिर,शैलजेश,शर्व,शाम्भवी के पति। 
कण्ठ कालकूट,कामकदन,कपाली,काली- 
कंत, करुणाकर,कपर्दी है कृपालु अति।।
भूतनाथ,भव्य,भव,भस्म-अंग,भालज्वाल, 
 भीम,भवतारक, भवेश,भक्त-अंतगति। 
चैलहीन,चण्ड,चिन्त्य,'शुक्ल'-चित्त चिन्तामणि, 
 चन्द्रचूड़ चारु अंघ्रि युग्म में मदीय रति।।20।।





 चन्द्रमा ललाट,तारकेश अवतंस,विधु- 
 मस्तक,विभूषण मयंक,मौलि द्विजवर। 
सतत जटाकलाप मध्य हैं कलानिधान,
 शीत रश्मि शेखर,चकोर बन्धु प्रियतर।।
 क्षणदेश मण्डित,पयोधि-सुत संग नित्य, 
 राजत सुधाकर कपर्द,अर्द्ध शशिधर। 
बाल इन्दु भाल है,सुशोभित निशीश शीश, 
 नमन निशीथनाथ-माथ,चन्द्र शिर पर।।21।।


देव,पितृ,अर्यमा उपास्य हैं किन्हीं के और, 
 कुछ जन हेतु पूज्य गंग मातु धारा है। 
कुछ के प्रणम्य राम,कृष्ण हैं विशेष,शेष, 
 शारदा किन्ही की औ किन्ही की विष्णु दारा है।। 
लौकिक जनों का अवलम्ब कुछ लोग लेते, 
 होत क्षुब्ध देख जिसे हृदय हमारा है।
 लाभ हो कि हानि,सौख्य प्राप्त हो कि संकट ही, 
 'शुक्ल'को सदैव चन्द्रचूड़ का सहारा है।।22।।





कोई अवलम्ब और शेष है भवेश नहीं, 
 आश है कि काज आशुतोष ही बनायेंगे। 
अन्धक उधारा जोकि पातकी प्रसिद्ध ही था, 
 चन्द्रचूड़ कौन व्याज 'शुक्ल' को भुलायेंगे।। 
पतित जनों को आप नित्य हैं उठाते नाथ, 
 फिर किस भाॅति इस दास को गिरायेंगे। 
लाभ दें कि हानि,मुझे आनन्द कि दुःख ही दें, 
 हर विधि तात आप मेरे मन भायेंगे ।।23।। 


 अर्द्धनारि ईश,अर्द्ध चन्द्र शीश,आप्तकाम, 
 नाम मात्र से असंख्य पातकी अधी तरे। 
पञ्चवक्त्र,पञ्चवक्त्रभामिनी प्रिया प्रसिद्ध,
 पञ्चवान शत्रु,भाल पञ्चवक्त्र हैं धरे।
 भक्त का अभाग लेख मेटते दयालु आशु, 
 बुद्धि और इन्द्रियादि से सदैव हैं परे। 
याद तू करे न अन्य को अरे विमूढ़ 'शुक्ल',
 भक्ति भाव चित्त में भरे करे हरे हरे ।।24।।



 
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Monday, 16 March 2015

शिव स्तवन

                                                                   गणेश वन्दना



 गज के सम मंजु मुखाकृति मोदक भोग सदा जिनके मन भाता । जिनका कुछ आदि न अन्त लिये शुभ नाम अमंगल पास न आता । सुर वन्दित,बुद्धि निधान,दुलार किया करतीं जिनका गिरि जाता। उन विघ्न विमोचन का कर ध्यान त्रिलोचन के अब मैं गुन गाता ।

                                                                     वाणी वन्दना
                                                               

 भाषा,भव्य भाव और भूषण सुमंजु ले के , भारती! हमारे छंद छंद को संवार दे । ज्ञानमयी ! प्रतिभा प्रभा का कर के प्रसार, बुद्धि का हमारी कर दूर अंधकार दे ! प्रणत हुआ हूं अम्ब ,तेरे पद पंकजों में,अन्तर-कुभावना को कर क्षार-क्षार दे ! शारदे! उबार दे निहार दे दया से मुझे उर का हमारे झनकार तार तार दे ।

                                                                    शिव स्तवन
                                                             

                                                                              1

जिनके सघन जटावन से , हो रही प्रवाहित सुरसरि धारा। परम कराल भुजंग माल से , रुचिर कण्ठ सब भांति संवारा । जिनके डम डम डमरू रव से,गुंजित हुवा विश्व है सारा । हे ताण्डव अनुरक्त ! भक्त भय हरण ! करो कल्याण हमारा ।

                                                                                2

जह्नुसुता की चपल तरंगें, विचलित जटा जाल से फंसकर । अति विकराल भाल पर जिनके , काल-ज्वाल जलती धक धक कर । बालइन्दु कृतकृत्य हुआ है,शिव ललाट को शोभा देकर । है प्रणाम कर बद्ध कामरिपु ! कोटि बार तुमको विधु –शेखर !

                                                                             3
                                                                 


 बैठ किसी एकान्त कुंज में , पावन जह्नुसुता के तटपर। युगल नेत्र से भक्ति भाव वश , प्रेम वारि बहता हो झर झर । निर्मल मन , दुर्बुद्धि विगत अब , हो प्रतीत सब शान्त चराचर । हे प्रभु दो वरदान कि अविरल , जपूं नाम हे शिव हे हर हर ।

                                                                            4
                                                                       
 सर पर बहत अमल जल गल मँह करत फनन फन सतत गरल धर । तन पर भसम लसत हरपल, हर करत रहत डम डम मरघट पर कटत सकल अघ तरत अधम सब,भजन करत जब मदन दहन कर । जय त्रय नयन ! भगत वतसल भय हरन,अमर,अज,जय जय हर हर ।

                                                                        5
                                                                 

 शीश जटाजाल औ गले में पड़ी मुण्डमाल, योगिनी,पिशाच,भूत,प्रेत लिये साथ हैं । खाये हैं कराल कालकूट औ लगाये भस्म,बाल इन्दु रहत रमाये नित्य माथ हैं । वसन दिशायें व्योम असन धतूरा आक, शंकर भयंकर त्रिशूल लिये हाथ हैं । त्रिभुवन त्राता सुर सन्त सुखदाता,मेरे माता,पिता,स्वजन,सुभ्राता भूतनाथ हैं ।

श्री केदारनाथ जी

                                                                           6
अंग अंग गौर ,गौरी मातु बाम सोह रहीं , शीश पै प्रवाहित पवित्र गंग धार है । पी के भंग करते हैं भव भव-ताप भंग,नंग हैं अनंग को बनाया क्षार क्षार है । देह में रमाये सदा रहते मसान भस्म,कण्ठ में सुशोभित कराल व्याल हार हैं । मैन-मान-हारी , तीन नैन त्रिपुरारी,उन अर्धचन्द्रधारी को प्रणाम बार बार है ।

श्री केदारनाथ जी

                                                                          7

धधक रही है काल ज्वाल भाल पट्टी बीच,विषम विषैले कण्ठ मध्य पड़े व्याल हैं । गरल गले में अर्ध चन्द्रमा ललाट बसा, साथ में पिशाच,प्रेम,भूत विकराल हैं । नग्न रहते हैं सदा करते त्रिताप भग्न , मग्न पिये भंग लिये डमरू विशाल हैं । मरघट वासी , तेजराशि,अविनाशी शम्भु, मेरे मन मानस के मंजुल मराल हैं ।


श्री सोमनाथ जी