Saturday, 3 September 2016

' जिन पञ्जर स्तोत्र ' का हिन्दी पद्यानुवाद

जैन धर्म के प्रसिद्ध "जिन पञ्जर स्तोत्र"का हिन्दी पद्यानुवाद यहाॅ प्रस्तुत है।आचार्य कमल प्रभ सुरीन्द्र की यह मूल रचना संस्कृत में है:---

-------श्री जिन पञ्जर स्तोत्र--हिन्दी पद्यानुवाद-----
   
                      (अनुवादक--रघोत्तम शुक्ल)

महावीर अर्हत् एवम् सब सिद्धगणों को ललित ललाम।
श्रद्धा सहित सकल आचार्यों को है मेरा दण्ड प्रणाम।।

आदर सहित उपाध्यायों के चरणों में है नमन मदीय।
नमो नमःश्री गौतम आदिक सर्व साधु जन को कमनीय।।1।।

नमस्कार ये पञ्च सुपावन,सर्व पाप के हैं दाहक।
करें सदा कल्याण 'शुक्ल'हैं सकल मंगलों के वाहक।।2।।

मन्त्रोच्चार सहित परमात्मा को कर नमन हृदय में ध्यान।
कमलप्रभु सुरीन्द्र करते हैं,जिन पञ्जर स्तुति का गान।।3।।

एक समय आहार या कि पूरे ही दिन तजकर भोजन।
प्रातः दोपहर साॅध्यकाल में,पाठ करे इसका जो जन।।
पा जायेगा वह साधक अपने सब मनोवाञ्छित फल।
इसमें है संदेह न रञ्चक,यह है तथ्य सत्य अविचल।।4।।







भूमि शयन कर,क्रोध लोभ तज,ब्रह्मचर्य का व्रत धर ले।
देवताग्र,अंतः पवित्र,फल प्राप्त मास षट में कर ले।।5।।

अर्हत शिर में,नयन भाल में स्थित सकल सिद्ध समुदाय।
कर्ण मध्य आचार्य विराजें,नासापुट हों सोपाध्याय।।6।।

साधु वृन्द मुख अग्र भाग में,मन को कर ले परम विशुद्ध।
सूर्य चन्द्र का कर निरोध शुचि,करे सिद्ध सर्वार्थ प्रबुद्ध।।7।।

दक्षिण भाग कामद्वेषी हों,वाम भाग में जिनधारी।
अंग संधियों में सब ज्ञाता,परमेष्ठी हों शिवकारी।।8।।

रक्षा करें पूर्व की जिन,आग्नेय जितेन्द्रिय से रक्षित।
दक्षिण परब्रह्म एवं,नैऋत्य त्रिकालवेत्ता नित।।9।।

पश्चिम जगन्नाथ से रक्षित,परमेश्वर से हो वायव्य।
करें तीर्थकृत उत्तर रक्षित,औ ईशान निरञ्जन भव्य।।10।।

श्री अर्हत पाताल,व्योम के हों पुरुषोत्तम रक्षणहार।
तथा रोहिणी प्रमुख देवियाॅ,रक्षें मेरा कुल परिवार।।11।।

रक्षा करें ऋषभ मस्तक की,एवं अजित उभय लोचन।
सम्भव युगल कर्ण के रक्षक,,नासा के हों अभिनन्दन।।12।

बने ओष्ठ रक्षक श्री सुमती,दन्त पद्म प्रभ विभु श्रीमान्।
करें सुपार्श्व सुरक्षित जिह्वा,तालु चन्द्र प्रभ'शुक्ल'महान।13।

सुविधी करें कण्ठ की रक्षा,हृदय रक्ष दें जिन शीतल।
हों श्रेयाॅस बाहु युग रक्षक,बाहु पूज्य से पाणि युगल।।14।

विमल उॅगलियों के रक्षक हों,नखावली के प्रभो अनन्त।
धर्म उदर अरु अस्थिजाल के,तथा नाभि के शान्त महन्त।15।

कुन्थ गुह्यथल,और लोम कटि तट रक्षक हों अरह सतत।
मल्लि जंघ औ पृष्ठ पिण्डिका,रक्षक होवें मुनि सुव्रत।।16।।

रक्षा करें पदाड्गुलियों की नमि,श्री नेमि मदीय चरण।
पार्श्वनाथ सर्वांग चिदात्मा,वर्द्दमान करदें रक्षण।17।।

भू जल वह्नि वायु नभमय है,अहो 'शुक्ल'सारा संसार।
रागातीत निरञ्जन मेरे सर्व पातकों के परिहार ।।18।।


राजद्वार में या मरघट पर,रिपु संकट हो या संग्राम।
व्याघ्र चौर पावक सर्पादिक,भूत प्रेत की भीति तमाम।।19।।

मृत्त्युअकाल उपस्थित हो या घेरे दरिद्रता आपत्ति।
पुत्राभाव महादुख घेरे,या कि मूर्खता रोग विपत्ति।।20।।

डाकिनियाॅ शाकिनियाॅ घेरे,हों प्रतिकूल,क्रूर ग्रहगण।
नदी तरण वैषम्य व्यसन में,या विपत्ति में करे स्मरण।।21।।

जो स्मरण करे जिन पञ्जर यह उठ करके प्रातःकाल।
उसे न किञ्चित् कहीं व्याप्त भय,अरु हो सुख सम्पत्ति निहाल।।22।।

जिन पञ्जर स्तोत्र रुचिर यह,स्मरण करे जो प्रति वासर।
कमलप्रभ सुरीन्द्र श्री पावे,चिरस्थायिनी वह नरवर।।23।।

प्रातकाल उठ कृतज्ञता से,करे पाठ जो जिन पञ्जर।
मन वाञ्छित फल पूर्ति हेतु,पावे लक्ष्मी वह भक्त प्रवर।।24।।

देवप्रभाचार्य पद पंकज,हंस तर्कविद जिन-कुल-संत।।
श्रेष्ठ रुद्रपल्लीय कमलप्रभ कृत यह पञ्जर सतत जयंत।।25।।

                       जय जिनेन्द्र