Friday, 29 November 2013

यौन शोषण या बलात् रति

यौन शोषण को लेकर इन दिनों प्रचार माध्यम और समाज काफी उद्वेलित है । प्रचलित कानून के अनुसार ऐसे प्रकरणों पर भी दंड दे दिया जाता है जिनमें तथाकथित पीड़ित महिला घटना के काफी अंतराल के बाद इसका उद्घाटन करती है । लगातार बहुत समय तक होने वाले कथित यौन शोषण को भी वही मान्यता दे दी जाती है जो अकस्मात बलपूर्वक किये गए यौन शोषण की होती है । यद्यपि दोनो में बहुत अंतर है । जहां यौन शोषण अथवा बलात् रति एक निंदनीय और दंडनीय कार्य है वहीं इसके प्रावधानों का दुरुपयोग भी उतना ही निंदनीय और दंडनीय होना चाहिए । जमीनी सच्चाई ये है कि बहुधा लंबे अर्से तक पुरूष से अनुचित लाभ उठाने के लिए महिला यौन उपभोग करवाती है और निहित स्वार्थ की पूर्ति न होने पर यौन उत्पीड़न का आरोप लगा देती है । अत: ये आवश्यक है कि यौन शोषण घटित होने के बाद एक निश्चित समयावधि में पीड़िता को इसका उद्घाटन कर देना चाहिए और कानून की शरण में चला जाना चाहिए तथा ऐसा न होने पर उसकी सत्यता ज्यों की त्यों स्वीकार्य नहीं होनी चाहिए ।

                                                                  स्त्री के प्रति पुरूष का आकर्षण और यौन शोषण एक मानव सुलभ दुर्बलता है जो सनातन काल से होता चला आया है । प्राचीन धर्म ग्रंथों में सूर्य और कुंती तथा ऋषि पाराशर और सत्यवती आदि के बलात् रति प्रसंग मौजूद हैं ; लेकिन ये लोग और इनकी संतानें कर्ण और वेदव्यास समाज में कुत्सित और घृषित नहीं माने गए ।
                                                 अत: जहां एक और हमें ऐसी घटनाओं को रोकने के लिए सामाजिक चेतना जागृत करनी चाहिए वहीं दूसरी ओर इसके दुरूपयोग से उत्पन्न परिणामों पर भी ध्यान देना चाहिए ।
                                                               

Monday, 7 October 2013

नदियों में मूर्ति विसर्जन पर रोक,एक सही फैसला

इलाहाबाद हाईकोर्ट ने संगम नगरी की गंगा-यमुना नदियों में देवी-देवताओं की मूर्तियों के विसर्जन पर रोक लगा दी है । कोर्ट का ये आदेश अगले साल से उत्तर प्रदेश की सभी नदियों में मूर्ति विसर्जन पर रोक लगा देगा ।  ये एक स्वागत योग्य फैसला है । धार्मिक मामलों में अभी और सुधार की जरूरत है । ऐसे और सख्त फैसले आने चाहिए ।   

Monday, 2 September 2013

आसाराम को जेल भेजना, देर से उठाया गया छोटा कदम

आसाराम को जेल भेजा जाना, देर से उठाया गया एक छोटा कदम है । आसाराम की सारी संपत्ति का राष्ट्रीयकरण किया जाना चाहिए ।

Tuesday, 23 April 2013

जपयोग

आत्मा के परमात्मा से योग की विधियों में जपयोग का बड़ा महत्व है जिसमें मंत्र-जप सहित ध्यान माध्यम बनता है। ध्यान अपने आराध्य के पूर्ण चित्र या शरीर के किसी विशेष भाग पर अथवा मंत्र के अर्थ या शब्दों पर किया जाता है। मंत्र गुरु प्रदत्त होना चाहिए। गुरु मंत्र न होने पर आकार में छोटा मंत्र चुने, जैसे राम या ओम आदि। मंत्र का उद्देश्य ही है कि मनन से त्रण दिलाने वाला। कहा गया है कि शब्द में महान शक्ति होती है और मंत्र-स्वर की लहरियां संपूर्ण आकाश मंडल में प्रवाहित होकर प्रभाव डालती हैं। मंत्र के चित्र या श्री विग्रह भी होते हैं। मंत्रर्थ न जानते हुए या अज्ञानी होते हुए भी यांत्रिक ढंग से जप करने पर भी वैज्ञानिक आधारों पर मंत्र से संबंधित स्वरूप साधक के अंत:करण में प्रविष्ट होकर आत्म प्रकाश फैलाएगा। मंत्र जप तीन प्रकार का होता है। वैखरी अर्थात् स्फुट उच्चारण करके, उपांशु अर्थात बहुत हल्केस्वर से अर्थात जिसे दूसरा न सुन-समझ सके और मानसिक, जो अंदर ही अंदर चले। जप में ज्यो-ज्यों आगे बढ़ते जाएंगे, ध्यान की सघनता और आराध्य में संलग्नता बढ़ती जाएगी और कालांतर में अविरल ध्यान ही चलेगा, जो समाधि या ब्राह्मी स्थिति में परिवर्तित हो जाएगा। साध्य प्राप्त हो जाने पर साधन के उपयोग की आवश्यकता ही नहीं रह जाएगी। दूसरे शब्दों में कहें तो ऐसी स्थिति में मंत्र की विशेष उपयोगिता नहीं रह जाती है। गीता के दशम अध्याय में अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है कि यज्ञों में मैं जपयज्ञ हूं। वीर शिवाजी के गुरु रामदास को आध्यात्मिक ऊंचाइयां श्रीराम जयराम जय जय राम के जप से मिलीं, जिसे उन्होंने गोदावरी के जल में खड़े होकर तेरह करोड़ बार जपा। स्पष्ट है कि जप की महत्ता अनिर्वचनीय और लोक हितकारी है। जिसने भी जप का महत्व समझ लिया और अपने तथा लोक के कल्याण के लिए इसका सहारा लिया उसे इसका लाभ मिलना तय है। रघोत्तम शुक्ल http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/23-apr-2013-edition-Delhi-City-page_8-16555-104940208-4.html(यह आलेख दैनिक जागरण में दिनांक 23 अप्रैल 2013 को प्रकाशित हुआ । )

Tuesday, 15 January 2013

सदाचार और विचार

सदाचार और विचार सत् अव्यय को आधार से युक्त करने पर सदाचार बनता है। जिसका अर्थ है अच्छा आचरण और व्यवहार। इसकी महत्ता सभी धर्मों में स्वीकार की गई है। मानव सभ्यता के आदिग्रंथ वेदों में भी सदाचार की महिमा, गुण और प्रभाव का विपुल भंडार है। त्रग्वेद के दशम मंडल में सप्त मर्यादाओं का उल्लेख है-हिंसा, चोरी, व्यभिचार, मद्यपान, जुआ, असत्य भाषण तथा पाप-सहायक दुष्ट। सप्तम मंडल में श्रुति कहती है कि हे मनुष्य, तू साहसी बनकर गरुड़ के समान घमंड, गीध के समान लोभ, चकवे के समान काम, श्वान के समान मत्सर, उलूक के समान मोह और भेड़िये के समान क्रोध को समझकर उन्हें मार भगा। नीति ग्रंथों में सदाचार के तेरह मूल सूत्र वर्णित हैं-अभय, मुदुता, सत्य, आर्जव, करुणा, धृति, अनासक्ति, स्वावलम्बन, स्वशासन, सहिष्णुता, कर्तव्यनिष्ठा, व्यक्तिगत संग्रह, संयम और प्रामाणिकता। श्रुति में सदाचार के तीन आधार स्तंभ कहे गए हैं- अदम्यता, सुकर्म और पवित्रता। स्मृतिकार हारीत ने इसके तेरह भेद बताए हैं- ब्रह्मण्यता, देवपितृभक्ति, सौम्यता, दूसरों को न सताना, अनुसूयता, मृदुता, कठोर न होना, मैत्री, मधुर भाषण, कृतज्ञता, शरण्यता, कारुण्य और प्रशांति। बौद्ध धर्म के पंद्रह सदाचार हैं। जैन धर्म में परमानंद की प्राप्ति के तीन साधन हैं-सद्विश्वास सत् ज्ञान तथा सदाचरण। मनु स्मृति के अनुसार सदाचार से कभी न नष्ट होने वाला धन प्राप्त होता है तथा शुभ लक्षणों से हीन होने पर भी सदाचारी शतायु होता है। आचार का जन्म विचार से होता है। मन संकल्प विकल्प करता रहता है। प्रयत्नशील इंद्रियां चंचल विचरण करती हैं। मन में शुद्ध विचार से उठने वाली तरंगों से शुभ कमों और सदाचार का जन्म होगा। ऋग्वेद की प्रार्थना है आ नो भद्रा: क्रतवो यन्तु विश्वत: अर्थात हममे सब ओर से शुभ विचारों का आगमन हो। इसका परिणाम सदाचार तथा विश्व से विश्व मानव के कल्याण का पथ प्रशस्त होगा। - रघोत्तम शुक्ल ये लेख दैनिक जागरण में दिनांक 15 जनवरी 2013 को संपादकीय पेज पर प्रकाशित हुआ । http://epaper.jagran.com/ePaperArticle/15-jan-2013-edition-Delhi-City-page_8-4681-134900416-4.html